Thursday 14 May 2015

समलैंगिकता क्या अपराध है?


पिछले महीने एम्स अस्पताल के एनस्थीसिया विभाग की 31 वर्षीय डॉ प्रिया वेदी की दिल्ली में आत्महत्या की खबर आई। प्राप्त ४ पृष्ठों के सुसाइड नोट के मुताबिक पति का समलैंगिक होना, अँधेरे में रखकर शादी कर देने से लेकर दहेज़ की निरंतर मांग और तद्पश्चात पति के द्वारा दी गई शारीरिक और मानसिक यातना को उसकी आत्महत्या की वजह माना जा रहा है ।बेशक उसके पति का समलैंगिक होना ही आत्महत्या की मुख्य वजह है।तत्पश्चात भारतीय दंड संहिता की धाराओं ३०४ B(दहेज उत्पीड़न के कारण मौत) और 498A (पति द्वारा पत्नी के साथ क्रूरता) के तहत मामला दर्ज कर एम्स में ही कार्यरत प्रिया के पति डॉ कमल वेदी को १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था। 

सवाल उठना स्वाभाविक है कि एक पढ़ी -लिखी, महानगर में रहने वाली और देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से वाकिफ एक आत्मनिर्भर लड़की ने अपने दर्द से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का ही विकल्प क्यों चुना ? अपने पति से अलग होकर एक नयी ज़िन्दगी की शुरुआत करने का ख्याल उसके मन में क्यों नहीं आया? निश्चित रूप से यह महज किसी एक लड़की की आत्महत्या का मामला नहीं है, वरन यह समाज में फैले तमाम बुराइयों की ओर इशारा है जिसे हम किसी वजह से सामने लाने से कतराते हैं. यह ऐसी कौन सी व्यवस्था है जहाँ आपसी प्रेम के गौण होने के बावजूद वैवाहिक बंधन को बचाये रखने और किसी तरह घूँट-घूँट कर ज़िन्दगी जीने को मजबूर करती है. दुर्भाग्यवश यह किसी एक जोड़े की कहानी नहीं, वरन लाखों लोग एक-दूसरे के साथ ज़िन्दगी गुजारने के लिए अभिशप्त हैं या फिर इसकी परिणति आत्महत्या के रूप में होती है. सवाल है कि गलती किसकी है और इसका हल क्या है? प्रिया वेदी के आत्महत्या के मामले में क्या दोष केवल कमल वेदी या प्रिया का ही है, या फिर हमारी दकियानूसी विचारधारा, भारतीय कानून या एक ढर्रे पर चलने की हमारी मजबूरी और समस्याओं को सुलझाने में हमारी असमर्थता  भी उतनी ही जिम्मेवार है ? 

समलैंगिकता और हमारा कानून 

प्रिया की आत्महत्या के बाद समलैंगिकता का मुद्दा फिर उठा है. अपने अंतिम फेसबुक पोस्ट द्वारा प्रिया ने समलैंगिक युवकों को शादी कर किसी की जिंदगी के साथ खिलवाड़ नहीं करने की सलाह दी है. सवाल जायज है की डॉ कमल वेदी ने शादी करने की स्वीकृति क्यों दी ? शादी से पूर्व अपने समलैंगिक होने की जानकारी अपने होने वाले जीवनसाथी को क्यों नहीं दी? क्या यह मान लेना उचित होगा कि उसे भविष्य में हो सकने वाले इसके दुष्परिणामों का आभास नहीं था ?और यदि शादी मर्ज़ी के विरुद्ध की गयी तब निश्चित रूप से विडम्बना ही है कि  इतने पढ़े-लिखे इंसान में भी सच का सामना कर सकने की हिम्मत नही होती है. पर यह भी उतना ही सत्य है कि अपने परिवार के सदस्यों की ख़ुशी की खातिर, समाज में अपनी इज़्ज़त बनाये रखने के लिए और यहाँ तक की जीने के लिए भी न चाहते हुए भी ऐसे लोगों को शादी के लिए तैयार होना पड़ता है. और तो और घर और संपत्ति से बेदखल तक कर देने की धमकी इन्हे चुप करने में अहम भूमिका निभाती है. 

हाँ, हमें भी इसके लिए एक सकारात्मक माहौल बनाकर मदद करनी होगी जैसे समलैंगिक औरत या मर्द को अपराधी समझना बंद करना होगा. यह मानना होगा कि समलैंगिता कोई बीमारी नहीं है जो समय के साथ अथवा शादी कर देने से ठीक हो सकती है।.

कानून का भी डर भी ऐसी दुखद स्थिति के लिए कम जिम्मेवार नही. समलैंगिकता को अपराध का दर्ज़ा देने वाले हमारे देश के कानून में बदलाव की आवश्यकता है. हालांकि जुलाई 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फैसले के तहत आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने नकार दिया। पर इस फैसले के उपरांत समलैंगिकता पर बहस छिड़ गयी है. समलैंगिक पुरुष या महिलाएं , उनके परिवारजनों या उनके जीवन साथियों की समझाने और स्थिति से उबारने में मदद करने हेतु कई गैर सरकारी संगठन अस्तित्व में आये हैं. जो की इनके अधिकारों के लिए काम कर रहे हैं.

हमारे देश जहाँ करीबन २.मिलियन समलैंगिकों के होने की रिपोर्ट है, जल्द से जल्द इस कानून में परिवर्तन किया जाना जरूरी है. साथ ही, जबरन विवाह को रोकने के लिए भी कड़े फैसले लिए जा सकते हैं।  मिसाल के तौर पर अभी हाल ही में यूके में कानून बनाकर जबरन विवाह पर रोक लगाने की कोशिश की गयी है. एंटी सोशल बिहेवियर, क्राइम एंड पुलिसिंग एक्ट 2014 के तहत ब्रिटेन और वेल्स में शादी के लिए मजबूर करने वाले व्यक्ति को सात साल की सजा तक दी जा सकती है।


सामाजिक व्यवस्था और शादी की परंपरा :

हमारी सोच, सामाजिक नियम -कानून और हमारा डर दरअसल समस्या की जड़ है. ऐसा समाज जहाँ बेटे-बेटियों की इच्छा, पसंद - नापसंद, ख़ुशी और सच्चाई से ऊपर मान-मर्यादा, दिखावा और शादियां निभाने जैसी बातों का महत्व है, जबरन शादी करने के लिए मजबूर करने से लेकर कष्टपूर्ण शादी को न तोड़ने की बाध्यता शामिल है. मामला इसलिए भी गंभीर है क्यूंकि हमारे समाज में ऐसे मुद्दों पर पर्दा डालने का रिवाज रहा है. औरतों के नजरिये से देखें, किसी समलैंगिक पुरुष से शादी हो जाने से उसे मानसिक कष्ट सहना पड़ता है और परिणामतः मनोवैज्ञानिक समस्याएं शुरू होने लगती है. हालांकि मदद के लिए काफी व्यवस्थाएं हैं , पर सच्चाई है कि औरतों को इसे समझने में, सबके सामने समस्याओं को प्रकट करने और कानूनी मदद लेने में इतना वक्त गुजर गया होता है कि एक तरह से क्षति हो चुकी होती है. 

हमारे समाज में प्रचलित अरेंजेड विवाह की व्यवस्था को भी नए सिरे से सोचना होगा। माँ-पिता द्वारा नियोजित इस विवाह में लड़का-लड़की को एक दूसरे को जानने का भी ढंग से मौका नहीं मिलता और अगर थोड़ा बहुत मिलता भी है तब शादी कर लेने के दवाब की वजह से लड़के अपने होने वाले जीवनसाथी से कुछ नहीं बताते. डेटिंग की अवधारणा को हमारे समाज में अपराध की नजर से देखा जाता है. इससे भी ज्यादा मुश्किल तब होती है जब कोई लड़की हिम्मत करके तलाक के बारे में सोचती है, चरित्र पर शक किया जाना और फिर सारा दोष लड़की के ऊपर ही मढ़ दिये जाने की प्रवृति भी शादी को न तोड़ने के निर्णय की वजह है. 'जिस आँगन में डोली में बैठकर जा रही हो, उसी आँगन से अर्थी भी उठे', गहराई से समाये ऐसी दकियानूसी विचारों को त्यागकर ही हम एक सुरक्षित माहौल बना सकते हैं। लड़कियों को जन्म के साथ ही शादी के लिए तैयार करने की मानसकिता में बदलाव लाना जरूरी है. 'शादी टूटी और ज़िन्दगी खत्म' को ही सच मानते रहे तब हत्याएं और आत्महत्यायें होती रहेंगी। 

नितांत जरूरी है कि शादी जैसे बंधन को गहराई से विचार किया जाये। इस रिश्ते की बुनियाद प्यार, एक- दूसरे के प्रति ईमानदारी, पारदर्शिता और आपसी संवाद हो. यक़ीनन समाज की ऐसी व्यवस्था से जूझते मर्द औरत सब है, पर इस पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ मर्द को विशेषाधिकार प्राप्त है, निश्चित रूप से पुरुषों की अपेक्षा औरतों को ज्यादा सहना पड़ता हैं और नतीजतन ऐसी ख़बरें सुनने को मिलती है. क्या किसी को भी रिश्तों के ऐसे जाल में उलझा देना सही है? 

परिवार का सहयोग 

बहस का मुद्दा यह भी है कि अगर प्रिया और कमल के परिवारों को कमल के समलैंगिक होने की जानकारी थी तो उन्होंने इसे नजरअंदाज क्यों किया। किसी भी समलैंगिक इंसान को शादी के लिए जबरदस्ती मनाना गलत है.ऐसी स्थितियों में परिवार के बड़े- बुजुर्ग ही दूरदर्शिता नहीं दिखाएंगे, तब कौन दिखायेगा? सही निर्णय लेने में परिवार की अहम भूमिका होनी चाहिए. और यदि शादी हो भी गयी तब समय रहते सही निर्णय लेने से मामले के बिगड़ने की नौबत ही नहीं आती. अपने परिवारजनों के सहयोग से घूँट-घूँट कर जीवन जीने के लिए मजबूर प्रिया शायद यह समझ पाती की रिश्ते सुधरने और पति के बदलने की उम्मीद नहीं है. शायद प्यार और भावों के ऊपर नियंत्रण कर सही दिशा चुनने में मदद मिल जाती। जीवन को नए सिरे से शुरू कर सकने में अपने को सक्षम बना पाती और सही और गलत का निर्णय कर पाती . 

ज़िन्दगी फूलों की सेज नहीं है, उतार- चढाव ज़िन्दगी का हिस्सा है. क्यों दुखद परिस्थितयों में मित्रों की सहायता, परिवारजनों से विचार-विमर्श कर हल निकालने का विचार एकदम गौण हो जाता है. मनोविश्लेषकों और अन्य संगठनों की मदद ली जा सकती थी। खबर है कि प्रिया वेदी ने पहले भी आत्महत्या करने का प्रयास किया था, तब भी कुछ सुधारने की कोशिश पूर्णरूप से नहीं की गयी. हमें समस्याओं को लेकर अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा, समस्याओं के समाधान में मानसिक परिपक्वता लानी होगी। सच का सामना कर और अपने बच्चों का सहयोग कर काफी कुछ परिवर्तित किया जा सकता है.


निश्चित रूप से इस दुखद घटना ने ऐसी परिस्थिति से गुजर रहे युवाओं को खुद के बारे में सोचने और समाज को उनके बारे में विचार करने पर मजबूर किया है.

Monday 20 April 2015

नेट न्यूट्रैलिटी

एयरटेल द्वारा जीरो योजना की घोषणा के बाद नेट न्यूट्रैलिटी या नेट तटस्थता पर बहस तेज हो गई है।उपभोक्ताओं को कुछ मोबाइल एप्स तक मुफ्त में पहुंच की सुविधा देने की व्यवस्था वाली एयरटेल-जीरो नामक ओपन मार्केटिंग प्लेटफार्म गत सप्ताह कंपनी ने पेश की थी। इसमें शुल्क का बोझ वेबसाइट चलाने वाली या ऐप बनाने वाली कंपनियों द्वारा उठाने की बात कही गयी है. पर नेट तटस्थता की वकालत करने वाले इस योजना का जमकर विरोध कर रहे है. इनका तर्क है कि किस वेबसाइट को धीमा चलाना है, किसे फास्‍ट या फ्री में एक्‍सेस देना है, इस मनमानी का अधिकार टेलीकॉम कंपनियों को मिला तो इंटरनेट की आजादी ही खतरे में पड़ जाएगी। कुछ टेलीकॉम कंपनियां कुछ वेबसाइटों को फ्री या तेज स्‍पीड देकर बाकी वेबसाइटों का रास्‍ता बंद करना चाहती हैं। इंटरनेट पर हर वेबसाइट को बराबर स्‍पीड और बराबर मौका मिलना चाहिए।

और तो और, उपभोक्ताओं के भी नेट के इस्तेमाल की स्वतंत्रता पर खतरा है. अभी यदि कोई व्यक्ति किसी इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर से डाटा पैक लेता है तब उसे अपने डेटा के इस्तेमाल के हिसाब से भुगतान करना होता है न की अलग अलग वेबसाइट अथवा ऐप के आधार पर. उसका यह अधिकार है कि वो नेट सर्फ करे या फिर स्काइप, वाइबर पर वॉइस या वीडियो कॉल करे. लेकिन अगर नेट न्यूट्रैलिटी खत्म हुई तो इंटरनेट डाटा के मामले में हमें हर सुविधा के लिए अलग से भुगतान करना पड़ सकता है। इससे कंपनियों को तो फायदा होगा, लेकिन आम जनता के लिए इंटरनेट के काफी महंगे हो जाने की संभावना है । सरल उदाहरण से समझा जा सकता है , जैसे की फोन लगने पर जिस तरह किसी भी नंबर पर कॉल करना ग्राहकों की मर्जी पर निर्भर करता है, उसी तरह इंटरनेट प्लान लेने पर कौन सी साइट देखनी है, इसका निर्णय लेने का अधिकार भी ग्राहकों को ही मिलना चाहिए. टेलिकॉम कंपनियां इसे खत्म करना चाहती हैं.

आम जनता, फिल्म हस्तियों से लेकर कई राजनीतिज्ञों ने मिलकर ट्राइ से मांग की है कि ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ को जारी रखा जाए। सवाल है कि क्या सचमुच टेलीकॉम कंपनियां इंटरनेट सेवा देने के नाम पर इंटरनेट पर ही कब्‍जा जमाना चाहती हैं।

हालांकि फ्लिपकार्ट जैसी इ कॉमर्स की अग्रणी कंपनी ने नेट न्युट्रलिटी पर हुए हंगामे को देखते हुए एयरटेल जीरो योजना से अपने को अलग कर लिया है. इसी बीच एयरटेल ने भी अपना पक्ष साफ करने की कोशिश की है. एयरटेल का कहना है कि इस जीरो प्लान को लेकर लोगों में गलतफहमी है और यह योजना नेट न्यूट्रैलिटी की अवधारणा का बिलकुल उल्लंघन नहीं करती। 'जीरो योजना' के तहत :
  1. किसी भी तरह के एप्लिकेशन और कंटेंट को एक टोल-फ्री सर्विस के जरिए उपभोक्ताओं तक  पहुँचाया जाएगा.
  2. ऐसे कस्टमर्स जिनके पास डेटा पैक नहीं है, वह भी जीरो प्लान के तहत आने वाली वेबसाइट्स को बिना किसी डेटा पैक की मदद के फ्री में एक्सेस कर पाएंगे.
  3. कोई भी साइट्स जो टॉल फ्री सर्विस का हिस्सा हों या नहीं उसे ब्लॉक नहीं किया जाएगा. बिना किसी भेद-भाव के कोई भी बेब-पेज एक्सेस करना संभव है. 
  4. यह प्लेटफॉर्म बिना किसी भेद-भाव के हर उन कंपनियों के लिए खुला होगा जो हमारे इस सर्विस से जुड़ना चाहेंगी।
अपने ग्राहकों को भेजे ईमेल में भारती एयरटेल के प्रबंध निदेशक व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (भारत व दक्षिण एशिया) गोपाल विट्टल ने लिखा है, ‘हम पूरी तरह नेट निरपेक्षता के पक्ष में हैं।’’ उन्होंने कहा कि यह प्लेटफॉर्म सभी ऐप डेवलपर्स, कंटेंट प्रदाताओं और इंटरनेट साइटों को समानता के आधार पर उपलब्ध है और सभी को समान रेट कार्ड की पेशकश की जा रही है।यह भी कहा है, ‘‘इसमें और टोल-फ्री वॉयस मसलन 1800 में कोई अंतर नहीं है।’’ कंपनी के रूप में हम किसी वेबसाइट को ब्लॉक नहीं करते हैं और न ही उसे अलग रफ्तार की पेशकश करते हैं। हमने ऐसा कभी नहीं किया है और न ही ऐसा करेंगे। उन्होंने कहा कि सभी वेबसाइट, कंटेंट या एप्लिकेशन के साथ उसके नेटवर्क पर समान बर्ताव किया जाएगा, बेशक वे टोल-फ्री प्लेटफॉर्म पर हैं या नहीं।

यह विचारणीय मुद्दा है कि क्या सच में जीरो योजना नेट न्यूट्रैलिटी के सिद्धांतों पर खरी उतरती है या नहीं? साइबर मामलों के विशेषज्ञ पवन दुग्गल बताते हैं कि इंटरनेट सेवा देने वाली कंपनियां अब इंटरनेट पर उपलब्‍ध कॉन्‍टेंट से कमाई के रास्‍ते तलाश रही हैं। यानी इंटरनेट पर आप जो देखते हैं, पढ़ते हैं और खरीदते हैं, उसमें भी इन्‍हें हिस्‍सा चाहिए। दूसरी तरफ वाट्स एप, वाइबर जैसी कंपनियां इंटरनेट के जरिए फ्री मैसेज और कॉल की सुविधा दे रही हैं, इन्हें भी टेलीकॉम कंपनियां बंद कराना चाहती हैं।

नेट न्यूट्रैलिटी के पैरोकारों का दावा है, नई तकनीक ने भारी- भरकम निवेश करने वाली इन टेलिकॉम कम्पनियाँ के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं. स्काइप जैसी कम्पनियाँ इनके मुनाफे को कम करने में लगी है, वॉट्सऐप के मुफ्त ऐप ने एसएमएस सेवा को लगभग खत्म ही कर डाला है, इसलिए ऐसी सेवाओं के लिए ज्यादा रेट वसूलने की कोशिश की जारी है , जो उनके कारोबार और राजस्व को नुकसान पहुंचा रही हैं। यदि एयरटेल की जीरो योजना अस्तित्व में आती है तब निश्चित रूप से इंटरनेट के स्वरुप में व्यापक परिवर्तन आएगा। स्वस्थ प्रतियोगिता जाती रहेगी, बड़ी कंपनियों का दबदबा बढ़ेगा और भविष्य में नई और छोटी कंपनियों के अस्तित्व में आने के रास्ते बंद होंगे. बेशक खुली और तटस्थ इंटरनेट का कोई विकल्प नही.

यदि कंपनी के मकसद नेक हैं, तब भी कई सवाल हैं जिसके उत्तर देने होंगे-
  • देश के तमाम लोगों जो की इंटरनेट प्रयोग नहीं कर पा रहे थे, उन्हें इंटरनेट से जोड़ने और अभिव्यक्ति की आजादी का अहसास दिलाने के उद्देश्य वाली इस महत्वकांक्षी योजना की शुरुआत करने वाले एयरटेल ने योजना की घोषणा करने से पूर्व ही जनता तक यह बात  क्यों नहीं पहुंचाई?
  • अगर यह प्लान जनता के हित  में भी है तब क्या तब भी इस योजना के लागू होने के बाद इंटरनेट इस्तेमाल करना आम आदमी के लिए उतना ही आसान होगा? मसलन यदि हम किसी ब्लॉग पर जाएँ जो मुफ्त में उपलब्ध है और उस ब्लॉग में एक यू-ट्यूब वीडियो या किसी अन्य साइट का लिंक भी डाला गया है, जिसे देखने के लिए पैसे देने होंगे तब क्या आम इंसान के लिए असमंजस की स्थिति नहीं होगी?
  • आखिरकार एयरटेल का करार कंपनियों  के साथ किन शर्तों पर हुआ है, इसे और विस्तार से बताना होगा।  जैसे अगर यह टोल फ्री नंबर जैसी ही व्यवस्था है, तब इसके लिए कितनी कीमत चुकानी होगी? 
  • किसी स्टार्ट अप कंपनी के लिए इस योजना  में शामिल होना क्या आसान होगा ?  
  • अब सवाल यह भी है की क्या केवल टोल फ्री नंबर के वजह से ही घर घर तक मोबाइल पहुंचा है ? यदि सच में इंटरनेट से जुड़ने वाले लोगों की संख्या में इजाफा करना मकसद है, तब क्या इंटरनेट की दरों में कमी लाना ज्यादा  सरल उपाय नहीं है?
  • इस साल के अंत तक वेबसाइट को बंद कर केवल ऐप से ही बिक्री किये जाने की संभावना की फ्लिपकार्ट द्वारा आज की गयी घोषणा क्या मात्र संयोग है?
कुछ लोगों ने निस्वार्थ भाव से कड़ी मेहनत करके मानवता के कल्याण के उद्देश्य से इंटरनेट की आधारशिला रखी थी. महज कुछ निवेश कर, स्पेक्ट्रम खरीद लेने से इंटरनेट पर इन टेलीकॉम कंपनियों का अधिकार होना निराशाजनक है. अर्थव्यवस्था के अन्य निहायत जरूरी संसाधनों जैसे ही इंटरनेट जैसे मूल्यवान संसाधन का कुछ टेलीकॉम कंपनियों का संरक्षक बन जाना कहीं से उचित प्रतीत नहीं होता .

नेट न्यूट्रैलिटी पर विवाद कोई नई बात नहीं है. कई देशों में इस सम्बन्ध में कड़े कानून बनाये गए हैं. अमेरिका, चिली, नीदरलैंड और ब्राजील जैसे देश पहले ही ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ अपना चुके हैं, जबकि भारत में कोई कानून नहीं है। मुद्दे को समझने के लिए एक कमिटी का गठन किया जा चुका है जिसकी सिफारिशें मई महीने के दूसरे हफ्ते तक आनी है.  इतना तो तय है कि मेक इन इंडिया का नारा लगाने वाली वर्तमान सरकार को सोच समझ कर कदम उठाना होगा क्यूंकि यह हमारे और सबसे बढ़कर हमारे देश के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है.

Saturday 21 February 2015

स्वच्छ भारत अभियान


"मैं न गंदगी करूंगा और न किसी को करने दूंगा", मोदीजी  का यह  वक्तव्य जहाँ  उनकी  स्वच्छ भारत के प्रति गंभीर चिंता को  दर्शाता है वहीँ  भारतवासियों में यह आशा भी जगाता है कि  शायद सबसे गंदे और प्रदूषित राष्ट्र के निवासी कहलाने के कलंक से  छुटकारा पा जायें ।

 भारत को साफ़-सुथरा देश बनाने के उद्देश्य के साथ भारतीय प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी जी ने  पिछले वर्ष दो अक्तूबर को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत  की । उस दिन देश भर के तक़रीबन ३ मिलियन सरकारी कर्मचारियों और छात्र-छात्राओं की सफाई अभियान में भागीदारी से आशा बंधी कि शायद वर्ष 2019 में गांधीजी के जन्म की 150वीं वर्षगांठ तक हम स्वच्छ भारत के लक्ष्य को पा सकेंगे।

इस अभियान को सफल बनाने के लिए तमाम मंत्री और अधिकारी जोर-शोर से जुटे। हाथों में झाड़ू थामे सार्वजनिक स्थलों की सफाई करते प्रधानमन्त्री और नामचीन हस्तियों ने सफाई को लेकर जागरूकता फैलाने की कोशिशें भी की. जगह-जगह लगाए गए बड़े-बड़े पोस्टर, विज्ञापनों, टीवी कार्यक्रमों, पपेट शो आदि के माध्यम से जन -जन तक सन्देश पहुंचाने का काम किया गया.  प्रधानमंत्री जी ने भी अपने भाषणों में कई दफा हर भारतीय से इस मिशन में शामिल होकर इसे सफल बनाने की अपील की है. उनका कहना है कि अगर हम इसे एक जनआंदोलन बना दें तो हम अपने देश की गिनती सबसे साफ राष्ट्रों की सूची में करा सकते हैं। स्वच्छता को पर्यटन और भारत के वैश्विक हित से जोड़ते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत के प्रति वैश्विक अवधारणा में व्यापक बदलाव लाने के उद्देश्य से देश के 50 शीर्ष पर्यटन स्थलों में स्वास्थ्य और स्वच्छता का स्तर विश्वस्तरीय होना जरूरी है।

क्या है स्वच्छ भारत अभियान?

पांच वर्षों में भारत को गन्दगी मुक्त देश में तब्दील के उद्देश्य से शुरू किये गए स्वच्छता अभियान का आशय निश्चित रूप से मात्र स्वयं एवं घर परिवार तक की सफाई तक सीमित नहीं है वरन इसके तहत हरेक गाँव, मोहल्ला, सड़कें, फुटपाथ और बस्तियां को साफ़-सुथरा करना, अनाधिकृत क्षेत्रों से अतिक्रमण हटाना अपशिष्ट जल को स्वच्छ करने की योजना है. संक्रामक महामारियों के नियंत्रण, पेय जल आपूर्ति की व्यवस्था, शहरी आबादी तथा उद्योगों के काम-काज से उत्पन्न कचरे के निबटान जैसी समस्याओं का समाधान ढूंढना भी शामिल है. इससे भी आगे बढ़कर इसके अंतर्गत सफाई कर्मचारियों के प्रति सम्मान की भावना के विकास को भी शामिल किया गया है. निसंदेह लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरुक कर व्यक्ति, समाज और देश के स्वास्थ्य में  सुधार लाया जा सकता है।

क्यों जरूरी है यह अभियान ?

आंकड़ों के हिसाब से भारत दुनिया के सबसे गंदे और प्रदूषित राष्ट्र की श्रेणी में आता है . पूरी दुनिया के 20 सबसे ज्यादा गंदे शहरों में 13 भारत के हैं जिनमें नई दिल्ली, पटना, ग्वालियर और रायपुर शीर्ष चार स्थानों पर हैं.

भारत की दो- तिहाई आबादी गंदगीयुक्त वातावरण में जीने के लिए मजबूर हैं, शौचालयों की सुविधा के अभाव में अभी भी लगभग 62.6 करोड़ भारतीय खुले में शौच करते हैं.

संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के मुताबिक हैजा, अतिसार, हेपेटाइटिस A , मलेरिया, डेंगू जैसे रोगों का जोखिम पूरी दुनिया के मुकाबले भारत में सबसे ज्यादा है.

स्वच्छता और बच्चों के विकास के मध्य गहरे सम्बन्ध को भी नकारा नहीं जा सकता। संक्रमण और बार- बार डायरिया के शिकार बच्चे जरूरी पोषक तत्वों के अभाव में कुपोषण के शिकार हो जाते हैं.

भारत में दुनिया की एक बहुत बड़ी आबादी, जो 1 साल से 6 साल के बीच की है, कुपोषण की शिकार है।

अस्वच्छ वातावरण की वजह से होने वाले हरेक वर्ष तक़रीबन ५ वर्ष से कम आयु के १,८६००० बच्चों की मौत को स्वच्छता फैलाकर रोका जा सकता है. विडम्बना ही है कि बढ़ती आय और बेहतर खान-पान के बावजूद भी बच्चों के कुपोषण स्तर जस की तस है.

अगर कचरे की बात करें, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक शहरों में उत्पन्न कचरे का का एक तिहाई हिस्सा सडकों पर पड़ा सड़ता रहता है. अकेले दिल्ली में रोजाना 500 टन अपशिष्ट का सृजन होता है और सालाना 44 लाख से ज्यादा टन हानिकारक अपव्ययों का सृजन होता है। इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ रहे उपयोग के कारण ई- अपव्यय बढ़ रहा है और ताजा आकलनों के अनुसार देश में उत्पादित कुल ई-अपव्यय में से केवल 10 फीसदी की ही रिसाईक्लिंग हो पाती है। मौजूदा नीतियां, कार्यक्रम और प्रबंधन संरचना इस अपशिष्ट के निपटान की भीषण चुनौती का पर्याप्त रूप से समाधान नहीं करती जिससे 2031 तक 16.5 करोड़ टन तथा 2050 43.6 करोड़ टन हो जाने के आसार हैं।

दुर्भाग्यवश यही स्थिति गंदे पानी को लेकर भी है, कूड़े-कचरे, मानव-शवों और पारम्परिक प्रथाओं का पालन करते हुए उपयोग में आने वाले प्रत्येक घरेलू सामग्री का समीप के जल स्रोत में विसर्जन कर देना हमारी आदतों में शुमार है। नालियों और विभिन्न औद्योगिक इकाइयों द्वारा कचरे तथा गंदे पानी का नदियों, नहरों में उड़ेलने का विकल्प ढूंढना अत्यंत जरूरी है.

यदि भारत स्वच्छ होता है तो डब्ल्यूएचओ के अनुसार प्रति व्यक्ति वर्ष में साढ़े छह हजार रुपये की बचत होगी क्योंकि स्वच्छता के कारण बीमारियों पर होने वाले खर्च में कमी आएगी । विश्व बैंक के एक आँकड़ें के मुताबिक अगर साफ़-सफाई पर एक डॉलर खर्च किया जाए तो स्वास्थ्य और शिक्षा आदि पर खर्च होने वाले नौ डॉलर बचाए जा सकते हैं।

भारत के पर्यटन व्यवसाय पर भी अस्वच्छता का असर साफ़ दिखाई देता है. भारत के गौरवपूर्ण इतिहास और संस्कृति को देखने-समझने के लिए बड़ी तादाद में विदेशी पर्यटक भारत आना चाहते हैं, लेकिन गंदगी की वजह से वे यहां आने से कतराते हैं। सिंगापुर, थाइलैंड जैसे देशों की अर्थव्यवस्था उनके पर्यटन के वजह से चल रही हैं, लेकिन हमारे यहां दिन-प्रतिदिन पर्यटक कम होते जा रहे हैं।

साथ ही, अर्थव्यवस्था को मजबूत बंनाने के लिए विदेशी निवेश की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन इसके लिए भी स्वच्छता जरूरी है। दुनिया भर में भारत की छवि को सुधारना आवश्यक है.


अभियान की मुख्य बातें :

1986 में कांग्रेस सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में सफाई सुविधाएं मुहैया कराने के लिए केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम यानी सीआरएसपी की शुरूआत की थी, पर सफल नहीं हो सकीं। सन् 2012 तक सार्वभौमिक घरेलू स्वच्छता के लक्ष्य के साथ 1999 में शुरू की गयी निर्मल ग्राम योजना या निर्मल भारत अभियान यानी एनबीए भी असफल रही. निर्मल भारत अभियान को ही वर्तमान सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान में परिवर्तित  किया है। स्वच्छ भारत अभियान का बजट एनबीए के बजट के तीन गुने के बराबर है. पूरी परियोजना की अनुमानित लागत 1,96,009 करोड़ रुपये है।

स्वच्छ भारत अभियान को दो उप अभियानों में वर्गीकृत किया गया है , स्वच्छ भारत अभियान ( ग्रामीण) और स्वच्छ भारत अभियान (शहरी ).

ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण विकास मंत्रालय हर गांव को अगले पांच सालों तक हर साल 20 लाख रुपये देगा। सरकार द्वारा हर परिवार में व्यक्तिगत शौचालय की लागत 12,000 रुपये तय की गई है. पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय द्वारा इस अभियान पर 1,34,000 करोड़ रुपये खर्च किये जाएंगे ।


शहरी क्षेत्र में हर घर में शौचालय बनाने, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाने, ठोस कचरे का उचित प्रबंधन करने और चुने गए 4,041 वैधानिक कस्बों के 1.04 करोड़ घरों को इसमें शामिल करने की योजना है। जिन क्षेत्रों में घरेलू शौचालय बनाना कठिन है वहां सामुदायिक शौचालय बनाए जाएंगे। सार्वजनिक स्थानों जैसे रेलवे स्टेशन, बाजार, बस अड्डे, पर्यटक स्थलों, धार्मिक-तीर्थ स्थल एवं राष्ट्रीय राजमार्गो पर साफ-सुथरे सार्वजनिक शौचालय तथा पेशाबघर बनाने की बात कही गयी है । महिलाओं के लिए भी पृथक शौचालय बनाने की योजना है,


शहरी विकास मंत्रालय ने इस मिशन के लिए 62,000 करोड़ रुपये आवंटित किये हैं।

वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार ने एक स्वच्छ भारत कोष की भी स्थापना की है. सरकार द्वारा जारी दिशा निर्देश के अनुसार इस कोष में ऐच्छिक योगदान तथा सीएसआर कोष के तहत चंदा जुटाया जाएगा . नए कंपनी कानून के तहत मुनाफा कमा रही कंपनियों को अपने 3 साल के औसत सालाना शुद्ध लाभ का 2 प्रतिशत निगमित सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) गतिविधियों पर खर्च करना होता है।


स्वच्छ भारत अभियान को सही तरीके से लागू करने के लिए जाने-माने वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक रघुनाथ अनंत माशेलकर की अध्यक्षता में 19 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति बनाई गई है। समिति विभिन्न राज्यों में स्वच्छता और पानी की सुविधा देने के सबसे श्रेष्ठ और आधुनिक तरीकों पर सुझाव देगी और उनमें सुधार के तरीके सरकार को बताएगी।।साथ ही, तकनीक के इस्तेमाल व इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल की दिशा में काम करेगी।


आम आदमी की भागीदारी :

बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे धर्म में स्वच्छता का इतना महत्त्व होते हुए भी हम सार्वजनिक स्थलों की सफाई को नजरअंदाज कर देते हैं। सवाल यह है कि क्या स्वच्छ भारत अभियान केवल सरकार की जिम्मेदारी है? बेशक सरकार अथवा अन्य संस्थाओं के काम करने की अपनी सीमा है।लोगों की ज्यादा-से -ज्यादा भागीदारी ही इस अभियान की सफलता को सुनिश्चित कर सकती है. लोगों में इस भावना की विकास करना होगा कि अपनी मातृभूमि को स्वच्छ रखना हमारा कर्तव्य है, स्वच्छता हमारी जरूरत है, यह हमारे जीवन-मरण से जुड़ा मसला है.

सप्ताह में दो घंटे और वर्ष में सौ घंटे सफाई हेतु नागरिकों का श्रमदान के लिए आह्वान इस अभियान के द्वारा किया गया है और आग्रह भी है कि हरेक व्यक्ति कम -से-कम अपने साथ १०० अन्य व्यक्तियों को इस अभियान में शामिल करने का प्रयत्न करें. एक जिम्मेवार नागरिक की भूमिका निभाने के लिए हमें तैयार होना ही होगा, इसका कोई विकल्प नहीं।

क्या होगा सपना साकार?


बेशक सिर्फ अभियान शुरु करना ही काफी नहीं है, परिणाम मायने रखता है. हालांकि स्वच्छ भारत अभियान की डगर बहुत आसान नहीं है. लोगों की आदतों को बदलने से लेकर भ्रष्टाचार तक से निपटना चुनौती है. खासकर अतीत में कुछ योजनाओं की विफलता को देखकर इस अभियान की सफलता पर संदेह वाजिब ही है. गाँवों में बनाये गए शौचालयों का ग्रामवासियों द्वारा इस्तेमाल नहीं किया जाना अच्छे परिणाम का द्योतक नहीं है. इसके अलावा, गाँवों में शौचालय तो बन रहे हैं लेकिन शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं है । निसंदेह स्वच्छता अभियान को पूर्णत: सफल बनाने के लिए सर्वप्रथम पानी की ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिससे किसी भी शौचालय को पानी की किल्लत की बजह से बंद होने के कगार पर न आना पड़े.


सवाल यह भी है कि स्वच्छ भारत अभियान के चलते जमा कचरे का निस्तारण कहां और कैसे होगा? यानी कचरा निस्तारण केन्द्रों को भी बढ़ाने की दरकार है । ध्यानयोग्य बात है कि सरकार की नीतियों में कचरा निस्तारण को लेकर गंभीरता नहीं दीखती । इसके अलावा स्वच्छता के मद्देनजर जो अतिरिक्त पूंजी खर्च होगी, उसके बंदोबस्त पर भी अभी पूरी बात स्पष्ट नहीं है।

आशा
इसमें कोई शक नहीं कि काम कठिन है पर दृढ़ संकल्प, लगन और यथोचित प्रयास से लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल भी नहीं है। पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश ने इसी तरीके को आजमाकर 20 साल की अवधि में खुले में शौच को 34 फीसदी से घटाकर 3 फीसदी कर दिया है। कचरे की रिसाईक्लिंग प्रक्रिया के क्षेत्र में कई कम्पनियाँ काम कर रही है। CII ने भी अपने सदस्यों की मदद से २०१५-१६ में देश भर में १०,००० शौचालयों के निर्माण किये जाने की घोषणा की है वहीँ टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ और भारती फाउंडेशन ने विद्यालयों में शौचालय निर्माण हेतु ३००-३०० करोड़ रुपये देने का वादा किया है. ग्रामीण और शहरी विकास मंत्रालयों ने धार्मिक गुरुओं और समूहों जैसे श्री श्री रविशंकर और गायत्री परिवार से स्वच्छ भारत अभियान में शामिल होने का अनुरोध किया है। सरकार और लोगों के प्रयासों से आने वाले वर्षों में भारत निश्चित रूप से वैश्विक मानदंड के अनुरूप एक स्वच्छ देश बन सकेगा।