Saturday 3 February 2018

थिएटर :एक छोटी चर्चा



मुंबई की शान है सिनेमा और इसमें थिएटर को भी जोड़ दें, तब कोई अतिशयोक्ति न होगी। हाँ,थिएटर सिनेमा जैसा लोकप्रिय नहीं। जबकि कई लोगों का मानना है कि उस समय चल रहे थिएटरों ने ही मुंबई में सिनेमा जगत की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 आज भले थिएटर की चमक फीकी पड़ी है, परन्तु आजादी के लिए लोगों के मन में उद्वेलित करने से लेकर वर्तमान सामजिक -राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न कर लोगों को जागरूक बनाने में इनके योगदान को कम नहीं आँका जा सकता. कभी गंभीरता से या कभी हलके फुल्के अंदाज में, कभी धारदार व्यंग्य के रूप में मंचित नाटकों द्वारा जिंदगी के हर पहलू की विवेचना की जा सकती है. सम-सामायिक मुद्दों, रिश्तों की जटिलता, आपसी द्वन्द, आम लोगों की शंकाएं तथा सामाजिक कुरीतियों को नाटकों के जरिये पेश किया जाता है. कभी-कभी तो थिएटर महज ज़िन्दगी के किस्से को ही दिखाने में सक्षम नहीं होता वरन कई सवाल उठाकर हमें सोचने पर मजबूर करता है. एक ऐसा ही उदहारण है, चेकोस्लोवाकिया के नाटककार 'कारेल कापेक' द्वारा लिखे नाटक 'रोसम्स यूनिवर्सल रोबोट्स' में सर्वप्रथम इस्तेमाल किया गया रोबोट शब्द, वर्तमान दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण देन कही जायेगी।  

विगत रविवार को मुंबई स्थित हरकत स्टूडियो में पञ्चतन्त्र नाटक का मंचन हुआ. पंचतंत्र की  दो प्रसिद्ध कहानियाँ, रंगा सियार तथा बन्दर और मगरमच्छ की दोस्ती, मंचन के लिए चुनी गयी थीं. पढ़ी हुई कहानियों को  नाटक के रूप मे देखने की कल्पना एक अलग ही उत्सुकता  जगाती है ! नाटक के शुरुआत में ढोलक और हारमोनियम पर बैठे कलाकारों की तीखी नोक-झोक ने सबको गुदगुदाया। मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों को इस माहौल में सहज होने में सहायता मिली. नोक-झोक के दौरान ही हमें पंचतंत्र के पांच अध्यायों से  अवगत कराया गया. वे हैं , मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव),मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ),काकोलुकीयम् (कौवे एवं उल्लुओं की कथा ),लब्धप्रणाश (मृत्यु या विनाश के आने पर; यदि जान पर आ बने तो क्या?) एवं अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें; हड़बड़ी में क़दम न उठायें) . मूल रूप से संस्कृत में लिखी गयी और बाद में विश्व की लगभग हर भाषा में अनुवादित इन कथाओं के द्वारा हमें मनोविज्ञान, व्यावहारिकता और राजनीतिके सिद्धांतोका परिचय होता है. ८७ कहानियों के माध्यम से इस ग्रन्थ के रचयिता पं॰ विष्णु शर्मा  जी ने मानव समाज को उचित-अनुचित का ज्ञान दिया है. 

 जानवरों  का अभिनय करना एक चुनौती भरा काम है, जिसे सफल बनाया रुपेश टिल्लू के निर्देशन और चार अन्य कलाकारों के दमदार अभिनय ने.  कहानियों के प्रदर्शन के बीच में हारमोनियम और ढोलक से उठती आवाजों  ने इन कथाओं को मंच पर जीवंत करने में शानदार भूमिका निभाई। कलाकारों का  गीदड़, हाथी, शेर, बन्दर और कभी मगरमच्छ बनकर तरह- तरह की आवाजें निकालना, गुस्सा, घमंड, भय, ईर्ष्या, लालच, आश्चर्य जैसे भावों को शारीरिक मुद्राएं बनाकर दर्शाना, उछलना -कूदना, भागना जैसी सहज प्रस्तुति  दर्शकों को बांधने में कामयाब रही. हालांकि नाटक के मंचन के दौरान कई बार मुझे महसूस हुआ कि इस नाटक को केवल बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं लिखा गया था. तथापि नाटक  के बीच-बीच में तालियों की गड़गड़ाहट और बच्चों की जोरदार हँसी सुनकर तसल्ली हुई  कि कम -से -कम  कलाकारों के सहज अभिनय ने सबका भरपूर मनोरंजन किया. खासकर नाटक के अंत में  होली के  गाये गए गीत और संगीत वाद्यों की मनमोहक आवाजों ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया।    
वर्तमान समय में बॉलीवुड की चमक -धमक के आगे भले ही रंगमंचों की चमक फीकी लगे,पर थिएटर जगत के लोग इसके भविष्य को लेकर आशावान हैं एवं दर्शकों को अपनी ओर खींच लाने की कोाशिश में लगे हैं. मनोरंजन की दृष्टि के अलावा शिक्षा की दृष्टि से भी रंगमंच की उपयोगिता को लेकर बहसें हो रही है. नाटकों में नए-नए  प्रयोग कर दुनिया भर में इस माध्यम को लोकप्रिय बनाने की कवायद जारी है, ताकि रंगमंच  उच्च मध्यमवर्गीय या बड़े शहरों में न सिमट कर आम जनता और छोटे -छोटे शहरों तक अपनी पैठ बनाने में कामयाब हो.

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