Friday 30 March 2018

शादी और सरनेम



नाम इंसान की पहचान है, इंसान के व्यक्तित्व का हिस्सा। जन्म के समय दिए नाम पर ही टिके रहना या उसे बदलना किसी भी इंसान का व्यक्तिगत निर्णय है. पर, कई देशों में शादी के बाद महिलाओं को अपना सरनेम हटाकर अपने पति का सरनेम लगाना कानूनन जरूरी है. हालांकि, हमारे देश में ऐसी बाध्यता नहीं है परन्तु परंपरागत रूप से शादी के बाद औरतों के सरनेम बदलने की प्रथा रही है। जहां अक्सर लड़कियाँ शादी के बाद इसे सहर्ष या फिर थोड़े दवाब में स्वीकार कर लेती हैं वहीं कुछ महिलायें डबल-बैरल्ड या हाइफ़नेटेड नाम अपनाकर यानी अपने सरनेम के साथ पति का भी सरनेम जोड़कर एक नई पहचान बनाती हैं. परन्तु कई महिलाओं को यह नामांतरण का ख्याल रास नहीं आता. अचानक से शादी के बाद अपने घर-परिवार और जन्म स्थान छोड़ने के साथ -साथ वर्षों से जुड़े नाम और उससे बनी पहचान को बदल देना आसान नहीं होता।

कुछ वर्ष पूर्व शादी डॉट कॉम द्वारा कराये गए सर्वेक्षण में 24 से 38 वर्ष के बीच 11 हजार 200 अविवाहित महिलाओं से जब उनके विचार मांगे गए तो 40.4 फीसदी ने कहा कि शादी के बाद वे अपना सरनेम नहीं बदलना चाहतीं। सरनेम के बदलने को लेकर यदि विकसित देशों के आंकड़ों पर नजर डालें, 1994 में यूरोबैरोमीटर के एक सर्वे में दावा किया गया था कि 94 प्रतिशत ब्रितानी महिलाएं शादी के बाद अपने पति का नाम अपना लेती हैं. हालाँकि,पिछले दो दशकों में इस आंकड़े में कुछ कमी आई है और वर्ष 2013 में यह 75 प्रतिशत तक पहुँच गया.

स्पष्ट है कि महिलाओं के सामाजिक स्थिति में बदलाव के साथ -साथ यह मुद्दा उतना सरल नहीं रहा. हमारे समाज में शुरू से पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है, जिसके तहत शादी के बाद लड़कियों का अपने माता -पिता और भाई-बहन को छोड़कर अपने पति के साथ ससुराल में बसने और उसी परिवार के एक अंग के रूप में माने जाने का रिवाज रहा है और नाम में किये जाने वाला बदलाव, उसी की एक कड़ी है. शादी के बाद बने नए रिश्तों के साथ खुद को जोड़ने और परिवार का नाम आगे बढ़ाने को लेकर यह जरूरी समझा जाता था.

लेकिन सवाल उठता है कि क्या आधुनिक समाज में जहाँ स्त्रियों की सोच, दशा में व्यापक परिवर्तन हुये हैं , इस तरह नाम बदलने की परंपरा कायम रखना जरूरी है? परंपरायें तो इंसान की सहूलियत के लिए बनायी जाती है और अगर यह आपसी विवाद का मुद्दा बनने लगे तो क्या किया जाए?

सरनेम बदलने के पक्ष में तर्क दिया जाता है लड़की को शादी के बाद मिली नयी पहचान के लिए यह एक आवश्यक कदम है। कई लोगों का दावा है कि विवाह के बाद पति-पत्नी दोनों को उनके अलग -अलग अस्तित्व के रूप में न देखकर एक पारिवारिक इकाई के रूप में जाना जाता है, ऐसे में दोनों का सरनेम एक होना अनिवार्य है. कुछ औरतों का मानना है कि शादी के बाद पति की पहचान को अपने नाम के साथ जोड़ने से दोनों के बीच बना यह रिश्ता और दृढ होता है। यह पति और ससुराल पक्ष की ओर औरतों का समर्पण भी जाहिर करता हैै. इस सन्दर्भ में पितृसत्तात्मकता जैसे तर्क को यह कहकर ख़ारिज किया जाता है कि विवाह पूर्व लड़कियों को पिता द्वारा प्रदत्त सरनेम भी तो उसी पैतृक समाज का द्योतक है।

कानूनी तौर पर सरनेम न बदलने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है, ढेरों कागजी कार्रवाई का होना मतलब बार-बार सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाना।कई महिलाएं इस वजह से जब तक ज़रूरी न लगे तब तक अपने नाम को बदलने के बारे में नहीं सोचतीं परन्तु वहीं कई औरतें अपने नाम के साथ जुड़ी अपनी भावनाओं और अपनी पहचान को किसी कीमत पर खोने को तैयार नहीं हैं.उन्हें अपने नाम के साथ अपने माँ-बाप से जुड़े होने का अहसास होता है.इन महिलाओं का तर्क है कि, नाम के साथ उनका करियर, उनका काम, अनुभव और उनका व्यक्तित्व जुड़ा होता है, ऐसे में नाम बदलने की सोच अव्यवहारिक है.

महिलाओं के हकों की दिशा में काम करने वालों के अनुसार इस परंपरा को अपना लेने से महिलाओं को पुरुषों से हीन माने जाने के विचार को बल मिलता है. सारे बदलावों के लिए महिलाओं के ही तैयार रहने की उम्मीद क्यों? पारिवारिक ईकाई की जहाँ तक बात है, पत्नी का सरनेम पति भी अपनाकर इस रिश्ते को एक नई पहचान दे सकते हैं.

एक अध्ययन के मुताबिक ऐसी महिलाएं जो शादी के बाद अपना सरनेम नहीं बदलती, पुरुष उनके प्रति नकारात्मक भावना रखते हैं. उन्हें कम आकर्षक और खराब मां मानने के साथ ही आपसी रिश्ते में कम वफादार माना जाता है. हद तो तब हो जाती है जब सरनेम नहीं बदलने के औरतों के निर्णय को ससुराल पक्ष के लोग अपनी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान से जोड़ने लगते हैं और तो और कभी-कभी यह मुद्दा पति- पत्नी के बीच अनबन और तलाक जैसे गंभीर मसले का कारण बन जाता है.

हालांकि कुछ लोग इस मुद्दे को ज्यादा तूल देने के पक्षधर नहीं हैं. उनका तर्क है कि सरनेम से ज्यादा लगाव रखने का कोई कारण नहीं है, सरनेम का महत्व केवल अपनी पहचान को आसान बनाने तक ही रखा जाना उचित है. ज्यादा जरूरी यह है हम सरनेम के वजाय अपने व्यक्तिगत गुणों को अपनी पहचान का आधार बनाने पर बल दें.

कुछ पश्चिमी देशों में पति का स्वेच्छा से अपने सरनेम के स्थान पर अपनी पत्नी का सरनेम लगाने का भी प्रचलन बढ़ा है. कुछ मामूली कारणों मसलन अपना सरनेम पसंद न आना के अलावा समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था और लैंगिक भेदभाव को चुनौती देना भी इसका उद्देश्य है.

आधुनिक समाज में जहाँ समाज में स्त्री-पुरुष समानता को लेकर बहस छिड़ी है, नाम बदलने या न बदलने के निर्णय का अधिकार महिलाओं को दे देना क्या उचित नहीं?
















Friday 23 March 2018

क्या पूरी होगी आस?


हर शाम लालटेन के शीशे को साफ़ करना, किरोसिन भरना और जलाकर निश्चित स्थान पर रखना, कभी २ दिन कभी ७ दिन या कभी कभी एक पखवाड़े और महीने तक बिजली का इंतज़ार करना, गर्मियों में बिस्तर पर लेटकर घूमने की आस के साथ पंखे को एकटक देखकर या टीवी पर आ रहे किसी फेवरिट कार्यक्रम के बीच में बिजली के गुल हो जाने के उपरांत मन-ही-मन १०८ दफा भगवान का नाम जपना और होली,दशहरा, दीवाली या छठ जैसे कुछ पर्वों को छोड़ साल के अन्य किसी दिन शाम के वक्त बल्ब जलने को किसी उत्सव से कम न सेलिब्रेट करना☺, ऐसी तमाम यादों से सराबोर मेरा मन इस महीने बिहार में गुजारे कुछ दिनों के दौरान वहां तक़रीबन हर रोज २० घंटे की बिजली आपूर्ति को देखकर आश्चर्यचकित हुए बिना न रहा. रही-सही कसर इन्वर्टर और बैटरी पूरी कर दे रहा है। 'हर घर बिजली- लगातार ' मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा बिहार के विकास को ध्यान में रखकर किये गए सात निश्चयों में से एक निश्चय है, जिसके तहत बिहार के हरेक घर को बिजली से रोशन करने का वादा उन्होंने जनता से किया है. सौभाग्य योजना के तहत दी गयी जानकारी के मुताबिक बिहार में कुल 123.46 लाख ग्रामीण परिवार में से 58.76 लाख घरों में अबतक बिजली पहुंचाई जा सकी है जबकि 64 लाख से अधिक घर बिजली से अभी भी महरूम हैं. आशा है, नीतीश कुमार इस योजना के लक्ष्य को जल्द ही पूरा करेंगे। पटना से नालंदा जिले की तरफ जाते वक्त रास्ते के कुछ गाँवों में बिजली के खम्भे लगाने का काम होते देखकर तसल्ली हुई कि शायद अब बिहार 'लालटेन युग' से बाहर निकलने के रास्ते पर है!
भारत के अपेक्षाकृत विकसित राज्यों में दौड़ती सडकों से तुलनीय सड़कें बिहार में देखकर मन में सवाल उठा कि वाकई जनता के 'अच्छे दिन' की शुरूआत तो नहीं है ये ? कई छोटे-छोटे गाँवों के सडकों के माध्यम से बड़े शहरों से जुड़ जाने से लोगों की जीवन -शैली बदली है, व्यापार -व्यवसाय बढे हैं, आने -जाने में लगने वाले समय में बचत ने लोगों के मानसिक स्तर पर प्रभाव डाला है. सडकों पर वाहन रोककर किये जाने वाले लूट-खसोट में भारी कमी आयी है. अगर आंकड़ों की तरफ न भी झांके तब कईयों का काम निपटाकर देर रात तक बिना परवाह किये घर लौटने की हिम्मत करना इस तथ्य की पुष्टि करता है. गुजरे वो दिन जब शाम होने तक घर तक किसी अपने या परिचित के न पहुँचने की खबर पाकर दिल की धड़कनें बढ़ जाया करती थी और तब तक सामान्य न होती जब तक सकुशल पहुँचने की खबर कानों में न पड़ती थी. उस डर और दहशत से छुटकारा जनता के लिए एक बहुत बड़ी राहत कही जाएगी. पर आगे भी, एक चुस्त -दुरुस्त सुरक्षा -व्यवस्था के साथ सरकार को चौकस रहना होगा ताकि वापिस जनता के शांति के साथ जीने के अधिकार में कोई सेंध न लगा सके.

होली बिहार में मनाये जाने वाले प्रमुख त्योहारों में से एक है. समय में बदलाव के साथ अब त्योहारों की रौनक पहले जैसी नहीं होती। रंग खेलने से लेकर, पूरी-पुए, दही-बड़े, फ्राइड नमकीन खाने में भी लोग सावधानी बरतते हैं. हाँ, बच्चे हाथ में पिचकारी लिए सुबह से ही रंग-बिरंगी पिचकारी हाथ में लेकर एक -दूसरे पर रंग डालने को आतुर दिखे। पर, एक बड़ा अंतर कुछ बड़ों की होली में साफ़ दिखा। शराब के नशे में धुत लोगों का जत्था गाँव का चक्कर लगाते नहीं दिखा, दूकान की शटर गिराकर ४-५ लोगों के झुण्ड का देशी-विदेशी शराबों के साथ पार्टी करने की भी खबर या शराब के नशे में बेसुध इधर -उधर पटकाये लोगों को घर तक पहुंचाने जैसी खबरें भी अब होली का हिस्सा नहीं बनीं । कुछ मनचले लड़कों की जमात का शराब पीकर तेज गति से गाडी या बाइक चलाने और तत्पश्चात छोटी- बड़ी दुर्घटना की खबर का कानों में न पड़ना शराबबंदी कानून का सख्ती से लागू होने को प्रमाणित करता दिखा. 'शराबबंदी ' कानून के पक्ष और विपक्ष के अपने तर्क हैं, पर इस कानून ने होली और शराब की जुगलबंदी के मिथक को तोड़ने का काम किया है.

पटना में मुख्य सडकों के चारों तरफ कोचिंग क्लासेज की शत प्रतिशत सफलता की गारंटी देते बड़े- बड़े बोर्ड और पोस्टर्स और राजनीतिक दलों के आत्मप्रशंसा जैसे विज्ञापनों के अलावा सामाजिक मुद्दों के प्रति आम जनों के बीच जागरूकता फैलाते पोस्टर्स भी काफी संख्या में दिखे। कोई शिक्षा और स्वच्छता के महत्त्व को बता रहा था तो कोई बाल विवाह और दहेज़ प्रथा की बुराइयों को, कुछ लड़कियों को पढ़ाने के महत्व को. बालिका साईकिल योजना, मुख्यमंत्री पोशाक योजना और प्रोत्साहन योजना, नशाबंदी जैसे प्रावधान और गत २१ जनवरी को दहेज़ और बाल विवाह के विरोध में मानव श्रृंखला का आयोजन, सरकार का विकास के साथ सामाजिक मुद्दों पर भी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे न्याय यात्रा, विकास यात्रा, धन्यवाद यात्रा, प्रवास यात्रा, सेवा यात्रा, संकल्प यात्रा के तहत राज्य के लोगों की शिकायतें सुन चुके हैं और एक बार फिर निश्चय यात्रा की घोषणा कर सात निश्चय से सम्बंधित प्रगति की समीक्षा और जनता की शिकायतों के निपटारे का प्रयास करनेवाले हैं.

यक़ीनन नीतीश कुमार की अगुवाई में सरकार ने विकास की दिशा में सराहनीय कदम उठाये हैं. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद बेशक कुछ परिवर्तन हुए हैं। अब बिहार उपहास का विषय कम, बाकी दुनिया के लिए सुधारों के मद्देनजर कौतूहल का विषय ज्यादा बन गया है. नजरें नीतीश कुमार पर टिकी है. उम्मीदें बहुत हैं, काम भी बहुत करने हैं, सड़क, बिजली से लेकर उद्योग-धंधे लगाकर रोजगार के नए अवसर प्रदान करना, कृषि के विकास की तरफ ध्यान, भू-पुनर्विभाजन, शिक्षा और चिकित्सा के स्तर में सुधार जैसे कई वादे हैं, जिन्हें जल्द -से- जल्द पूरा करने की जिम्मेवारी नीतीश कुमार के कंधे पर है. आजादी मिलने के सत्तर साल बाद भी ३८ में से १७ जिलों में हर १ लाख लोगों पर अधिकतम ३ चिकित्सक का होना WHO द्वारा निर्धारित १:१००० के मापदंड के हिसाब से अत्यंत शर्मनाक है . शिेक्षा के क्षेत्र की भी हालत दयनीय है, विद्यार्थी और शिक्षक का अनुपात जहाँ प्राथमिक शिक्षा में ३०:१ तथा उच्च प्राथमिक वर्ग में ३५:१ निश्चित की गयी है, वहीँ बिहार में क्रमशः यह अनुपात ४३:१ और ९६:१ है.

हालांकि विकास की गति को लेकर जनता खुश नहीं दिखती। शुरूआती वर्षों में जिस तेजी से प्रगति को महसूस किया गया, वह अब नदारद है. आम जनता की तकलीफों और चिंताओं से इतर महज अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने एवं राजनीतिक दलों के वर्ग और जाति जैसे फालतू मुद्दों में उलझ कर विकास और प्रगति को दरकिनार करने का डर बिहार की जनता के जेहन में है.

राजगीर स्थित शांति स्तूप के दर्शन को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से लगाए गए रोपवे सेवा का संचालन को संभालते कर्मचारियों द्वारा एक युवती को निर्धारित रास्ते से पंक्ति में आने के निर्देश दिए जाने के बाद उस महिला का बेवजह उनसे वाद-विवाद करते देख मन विचलित हुआ। जरूरत है, हमें खुद को सुधारने की. जब हम सुधरेंगे, तब बिहार सुधरेगा।