Saturday 19 May 2018

शादी: एक यादगार दिन या कुछ और


कुछ दिन पहले ही बातों-बातों में मैंने अपनी घरेलू सहायिका से पूछा, " कुछ बचाती हो अपने बच्चे के लिये ?" शादी ३ साल पहले हुई है और लगभग २ साल का बच्चा है उसका। उसने जवाब में कहा,"कहाँ दीदी, खर्चे इतने हैं और ऊपर से कर्ज़ा।" खर्च की बात तो समझ में आ गयी, महंगाई से तो सब परेशान हैं. पर क़र्ज़! उत्सुकतावश मैं थोड़े झिझक के साथ पूछ ही बैठी, " क़र्ज़ क्यों लिया?" "मैंने नहीं लिया, मेरे पति ने लिया था", उसका उत्तर था. मेरे क्यों पूछने पर उसने बताया " शादी थी न हमारी, उसके लिए लिया था, खाना खिलाना, गिफ्ट देना, कपड़े देना, सब करना पड़ता है।" उसकी आवाज में थोड़ा दर्द महसूस किया मैंने। दाम्पत्य जीवन की चुनौतियाँ क्या कम हैं और अगर उसकी शुरूआत एक भारी-भरकम क़र्ज़ के साथ हो, किसी के लिए भी कष्टकारी है. उस एक दिन को यादगार बनाने के नाम पर अभी तक की जमा-पूँजी या कई दफा क़र्ज़ लेकर खर्च कर देना और फिर लम्बे समय तक उसे चुकाते रहने की विवशता को क्या कहेंगे?
इस वार्तालाप के बाद मेरी यह धारणा कि शादियों में दिखावा या जरूरत से ज्यादा पैसे खर्च करने की प्रवृति महज समाज के ऊँचे और मध्यम वर्ग तक ही सीमित है, पूरी तरह से बदल गयी. बाजारवाद कहें या भौतिकवाद, इंसानों की किसी भी गलत परंपरा को शीघ्र अपना लेने की कमजोरी जैसी कई वजहों से यह प्रवृति समाज के हर तबके द्वारा अपना ली गयी है. बमुश्किल हजारों में निपटे जा सकने वाली शादियों के लिए ढेर सारा पैसा व्यर्थ गंवाया जाता है. विडम्बना यह कि, इस तरह पैसे को गंवाकर समाज में हम अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने, दूसरों से बड़ा कहलवाने और अपनी इज्जत बढ़ा लेने का झूठा दम्भ पालने लगते हैं और साथ ही, इसे एक बुराई मानने को भी तैयार नहीं होते हैं. कभी यह सोचने का यत्न नहीं करते कि क्या हमारे द्वारा चुनी गयी दिशा सही है? और -तो-और अपनी मान -मर्यादा के नाम पर अपने बच्चों की शादियों पर ढेर सारे पैसे खर्चकर उन्हें यह अहसास करवाने से भी न चूकते कि देखो हमें तुमसे कितना प्यार है! भले ही बच्चों को अपने गृहस्थ जीवन की शुरुआत खाली हाथ ही क्यों न करना पड़े।

आज प्रिंस हैरी और मेगन मार्केल की शाही शादी 1000 साल पुराने विंडसर किले के सेंट जॉर्ज चैपल में होने वाली है। लम्बे समय से चर्चा में रही इस शादी की राजघराने की अन्य शादियों के पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ देने की संभावना है। समारोह का दुनियाभर में सीधा प्रसारण किया जाएगा। विवाह -बंधन में बंधने जा रहे जोड़े से लेकर दुनियाभर की बड़ी-बड़ी हस्तियों के शिरकत, बटरक्रीम की फ्रॉस्टिंग और ताजे स्प्रिंग फ्लॉवर्स से सजे ४५ लाख रुपये का केक या 6 हजार पाउंड की वेडिंग रिंग, टिगनानेल्लो (Tignanello) वाइन, विंडसर कासल ट्रीट चॉकलेट ट्रफल और शाही दावत की झलकियां पाने के लिए करोड़ों लोग बेसब्री से इंतजार में लगे हैं. दैनिक जागरण में छपी एक खबर के मुताबिक इस शादी की लोकप्रियता को लेकर हाल ही में ब्रिटेन की एक मार्केट रिसर्च फर्म ने एक सर्वे भी किया है। सर्वे में जो सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा था वो था इस शाही शादी में भारतीयों की दिलचस्पी। सर्वे में शामिल कुल भारतीयों में से 54% भारतीयों ने माना कि वे प्रिंस हैरी और मेगन की शादी को लेकर उत्साहित हैं वहीं ब्रिटिश नागरिकों की बात करें तो सर्वे में सिर्फ 34% नागरिकों ने शाही शादी में रुचि दिखाई। जानकारी के मुताबिक, इस सर्वे में 16 से 64 वर्ष के बीच के 28 देशों के करीब 21 हजार लोगों ने हिस्सा लिया था।
भारतीयों की शादियों में दिलचस्पी जगजाहिर है, यहाँ के विवाहों की रौनक, चमक-धमक, संगीत तो विदेशी पर्यटकों को भी लुभाने लगा है. पर सवाल उठने लगा है कि यह फिजूलखर्ची नहीं है? खासकर भारत जैसे गरीब देश जिसमे आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखे सोने को मजबूर है, शादी-विवाह जैसे आयोजनों में आडंबर और शानो-शौकत पर इस प्रकार के धन, समय और संसाधनं की बर्बादी न्यायसंगत है ? क्या 'बिग फैट वेडिंग' को लेकर सच में हमें गर्व महसूस करना चाहिए?
आश्चर्य इस बात का है कि भारतीय शादियों का कारोबार अब बढ़कर करीब 1.२५ लाख करोड़ का हो गया है और हर वर्ष इसमें २०-३० % का इजाफा भी हो रहा है । यानि हर साल शादियों को और भी भव्य बनाने की होड़ जारी है, एक- दूसरे से ऊपर अपने आप को समझने की होड़ । डेस्टिनेशन वेडिंग, बीच वेडिंग,एडवेंचरस वेडिंग जैसे अंडरवाटर वेडिंग बंजी जंपिंग, मिड एयर वेडिंग, वाइल्ड लाइफ थीम पर शादियां आयोजित की जा रही हैं. हेलीकाप्टर से विदाई और पुष्प वर्षा, आलीशान मंडप, लजीज व्यंजन का इंतज़ाम कर विवाह की मधुर स्मृतियाँ संजोयी जा रही है या फिर कहें कि समाज में हैसियत, रुतबे को दिखाने का नया तरीका इज़ाद किया गया है। एक छोटा-सा पारिवारिक उत्सव दिखावे, शान-शौकत और सामाजिक प्रतिष्ठा का पर्याय बन गया है.

विलियम डेलरिम्पल की किताब 'द लास्ट मुग़ल' के पहले अध्याय में वर्णित मिर्ज़ा जवां वख़्त की शादी के जश्न का ब्यौरा भव्य शादियों को लेकर हमारी कमजोरी को दर्शाता है । लाल किले की लाहौरी गेट से रात के दो बजे बारात का निकलना, जमकर की गयी आतिशबाजियां, सजे हाथियों और घोड़ों का काफिला, देखने के लिए उमड़ा लोगों का हुजूम, त्योहारों जैसा समां बाँध रहा था. अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफ़र की पत्नी ज़ीनत महल ने अपने बेटे की शादी में छोटी - से -छोटी चीजों पर ध्यान दिया था चाहे महल की साफ़-सफाई हो या उसके दीपों और झाड़फानूसों से सजावट की बात हो या फिर मेहंदी की रस्म से लेकर लजीज पकवानों , कपडे, आभूषणों, दूल्हे के सेहरे को मोतियों से सजाने की, कोई कसर नहीं छोड़ी गयी थी. पूरे हिन्दुस्तान भर से पाइरोटेक्निशियन को बुलाकर उनके हुनर को परखा गया था। ज़ीनत महल द्वारा इस विवाह को आलिशान बनाये जाने का एक मकसद अपने बेटे के हैसियत में इज़ाफ़ा और साथ ही इस राजवंश में अपनी स्थिति को भी मजबूत करना था ।

सवाल यह उठता है कि क्या यह फिजूलखर्ची को किये बिना इस पवित्र बंधन को यादगार नहीं बनाया जा सकता? शायद संभव है, सादगी से इस पुनीत कार्य को अंजाम देकर कई जोड़ों ने यह साबित किया है कि बिना तामझाम की शादी भी लोगों के लिए यादगार बन सकती है । अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के भिंड में आयोजित दो आईएएस अधिकारियों आशीष वशिष्ठ और सलोनी की शादी हो अथवा सूरत के भरम मारू और दक्षा परमार की शादी या हैदराबाद के निवासी शशि किरण टिक्का और पूर्णिमा दीपिका के परिणय सूत्र में बंधने की खबर, इन तमाम हो-हल्ले के साथ हो रही शादियों के मध्य एक खुशनुमा अहसास जगाती है । कुछ जोड़ों द्वारा शादी के खर्चे होने वाले पैसे को जमा कर हर साल उससे मिलने वाले ब्याज को जरूरतमंद बच्चों पर खर्च करने का लिया जाने वाला संकल्प क्या कम महत्वपूर्ण है? क्या माँ-पिता के द्वारा इसी तरह का निर्णय लिया जाना बच्चों की नजर में उनके कद को ऊँचा करने वाला साबित न होगा? इस कुरीति में भागीदार न बनकर क्या हम एक उदहारण बनाकर समाज के अन्य लोगों को प्रेरित करने का संकल्प नहीं ले सकते? बाहरी तामझाम से प्रभावित न होकर और एक अदृश्य, अनकही प्रतियोगिता में शामिल न होकर मात्र दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद और शुभकामनायें प्रेषित कर हम इस पारिवारिक उत्सव के असल मकसद को फिर से कायम करने का प्रयत्न नहीं कर सकते?

इस फिजूलखर्ची को हमें जल्द से जल्द रोकना होगा वर्ना यह गरीबों को और गरीब कर देने वाला साबित होता जा रहा है, मध्यम वर्ग को कर्ज़ के दलदल में धँसाता जा रहा है और अमीरों को दिखावे की लत से ग्रसित करती यह परंपरा उन्हें और अधिक लालची और रिश्वतखोर बनाता जा रहा है. जितनी जल्दी हो सके कानून बनाकर, सामाजिक तरीके से जागरूकता फैलाकर या कठोर कदम उठाकर इस परंपरा को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। आज का युवा जो हर मुद्दे पर, हर मोर्चे पर सामाजिक बुराइयों को दूर कर देने के कार्य में तत्पर दिखाई देता है, वह इस ढोंग से अपने को दूर न कर सकेगा, यह कहना सही नहीं है.






Sunday 13 May 2018

हैप्पी मदर्स डे

आज मदर्स डे है। एक माँ के प्यार, समर्पण, त्याग को याद कर परिवार के अन्य सदस्यों की ज़िंदगियों में उनकी अहमियत का अहसास दिलाये जाने का दिन. इन दिवसों को मनाये जाने का एक सकारात्मक साइड इफ़ेक्ट है कि दुनियाभर में एक माँ की भूमिका की कदर की जाने की शुरुआत हुई है, मातृत्व की चुनौतियों को महसूस किया जा रहा है, निम्न दर्ज़े का काम समझेजाने वाले इस काम के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा है और  साथ ही लोगों को अपनी माँ के प्रति खुलकर अपनी भावनाओं का इज़हार करने का मौका भी मिल रहा है. संदेश भेजकर, उपहार या कार्ड देकर, या बुके देकर इस प्यार से भरे रिश्ते का को और भी प्यारा बनाया जा रहा है. सब रिश्तों से अनमोल माँ-बच्चे के इस रिश्ते को अनोखे ढंग से मनाने के तरीके ढूंढें जा रहे हैं. कोई मौका खोना नहीं चाह रहा अपनी माँ को जता देने का, हाउ मच आई लव यू...
और क्यों न जताया जाए, माँ -बच्चे का रिश्ता होता ही है बहुत प्यारा। जन्म देने से लेकर जीवन के हर कदम पर थामे रहती है, माँ अपने बच्चे का हाथ। कभी प्यार से और कभी सख्ती से एक गुरु या दोस्त बनकर जीवन का पाठ पढाती है,निस्वार्थ। अपने बच्चे और परिवार की ज़िन्दगियों में खुशियाँ भरने के लिए खुद की खुशियों की कुर्बानियां देने से नहीं चुकती। मिस वर्ल्‍ड के फाइनल राउंड में मानुषी छिल्लर से पूछे गए सवाल कि 'किस प्रोफेशन को सबसे ज्यादा सैलेरी मिलनी चाहिए' के जवाब के तौर पर  'एक मां को सबसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए और जहां तक सैलरी की बात है, तो इसका मतलब रुपयों से नहीं बल्कि सम्मान और प्यार से है' कहे जाने पर दुनिया भर के लोगों द्वारा पसंद किया जाना हर माँ की बच्चे के जीवन में एक विशेष भूमिका को साबित करता है.
रोते हुए बच्चे को बस माँ की गोद चाहिए होती है शांत होने के लिए. हलकी लगी चोट के दर्द गायब होने के लिए   माँ का केवल वह जादुई स्पर्श या एक हलकी फूँक काफी होती है. किसी प्रतियोगिता में जाने से पहले माँ का अपने बच्चे के ऊपर विश्वास बच्चे के आत्मविश्वास को कम होने नहीं देता। 'चाहे कुछ भो हो जाये, मैं तुम्हारे साथ हूँ' का आभास कराकर बच्चों के हर सुख-दुख के क्षणों में उनके साथ ताउम्र सहारे के रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खड़ी रहती है। कितनी ही बदमाशियों को झेल जाती है और कभी गुस्सा हुई तो मनाने के लिए जरूरी होती है बस थोड़ी सी मिन्नत! बहुत बड़ा दिल होता है माँ का. कहते हैं, भगवान् हर जगह नहीं हो सकते इसलिए उन्होंने माँ को बनाया।

इतना प्यार और सम्मान जहाँ रिश्तों को और अधिक मधुर बनाने में मददगार है, वहीँ एक माँ के रूप में एक औरत से और अधिक जिम्मेवार होने की अपेक्षा भी करता  है। बच्चे को जन्म देने से लेकर उसकी परवरिश और अन्य दायित्वों का निर्वहन निसंदेह एक जटिल कार्य है, जिसका नाता बच्चे के व्यक्तित्व के विकास से जुड़ा है. हर इंसान के व्यक्तित्व पर अपनी माँ के व्यक्तित्व का अच्छा -खासा प्रभाव पड़ता है. इसका प्रमाण हमें कई सफल व्यक्तियों की जीवनियों को पढ़कर मिलता है. जीवन के प्रति नजरिया, विषम परिस्थितियों से मुकाबला करने के तरीकों और संतुलित व्यवहार से लेकर बच्चों से जुड़े हर छोटे- बड़े मुद्दों में माँ की भूमिका पहले से ज्यादा बढ़ गयी है. ऐसे में हर वक्त अपने आप को और बेहतर और समझदार इंसान बनाने की कोशिश जारी रख, अपनी एवं अन्य की गलतियों और अनुभवों से सीखने और उसे न दुहराने का वादा खुद से कर इस चुनौती का सामना करने के लिए हर माँ को तैयार रहना होगा। इस जटिल काम का प्रशिक्षण किसी भी विश्वविद्यालय में नहीं दिया जाता और एक अच्छी औरत होना एक अच्छी माँ होने का लाइसेंस भी नहीं देता.




Friday 11 May 2018

किताबें और हम


किताबें हमेशा से ही हमारी संस्कृति और इतिहास का अभिन्न हिस्सा रही हैं। भले ही किताबों का स्वरुप कुछ अलग था पर क्ले टैबलेट्स, लौह पत्रों, चर्म पत्र, ताड़ पत्रों, मिट्टी की पटि्टयों, भोजपत्रों,पेपाइरस आदि पर उकेरे चिन्ह या शब्द इस बात का प्रमाण हैं कि हर युग में इंसानों ने अपने विचार,ज्ञान और अनुभवों को लिखकर संरक्षित करने और भावी पीढ़ी तक हस्तांतरण को महत्वपूर्ण माना है.


किताबें हैं क्या ? किसी के लिए ज्ञान का भण्डार, देश-दुनिया के आश्चर्यजनक रहस्यों और महत्वपूर्ण सूचनाओं का संग्रह, किसी की लिए मानसिक तनाव को दूर करने और मनोरंजन का साधन और किसी के लिए अकेलेपन का साथी और एक सच्चा दोस्त। किताबें दुनिया भर की जानकारियाँ अपने पन्नों में समेटे कभी शिक्षक बन जाती है, कभी पिता के रूप में कहानियां कहकर अच्छे -बुरे का भेद करना सिखाती है, वास्तविक दुनिया से हमारा परिचय कराती है और कभी हमारी भावनात्मक और बौद्धिक जरूरतों को पूरा कर एक माता की भी भूमिका निभाती है. दूसरों के विचारों से अवगत करा हमारी कल्पनाशीलता में नए पंख लगाती है, हमारी सोच में विस्तार करती है. निसंदेह मानसिक स्तर पर हमें और अधिक परिपक्व बनाकर एक बेहतर इंसान बनाने का बेहतरीन माध्यम हैं किताबें। फिर क्यों न, किताबों से दोस्ती कर ली जाए ?

अधिक-से-अधिक लोगों को किताबों से जोड़ने और पढ़ने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से २३ अप्रैल को . यूनेस्को(यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन) द्वारा हरेक वर्ष विश्व पुस्तक दिवस दुनिया भर में मनाया जाता है. भारत में भी केन्द्रीय संस्थानों, पुस्तकालयों, विद्यालयों और दूसरे शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित कर लोगों को अध्ययन के प्रति जागरूक करने की दिशा में प्रयास किये जाते हैं. अलग-अलग शहरों में आयोजित किये जाने वाले पुस्तक मेलों का उद्देश्य भी किताबों के प्रति लोगों की रूचि बढ़ाना ही है. हर आयु वर्ग के लोगों को ध्यान में रखकर लाखों की संख्या में पुस्तकें प्रदर्शन के लिए रखी जाती है। कहानियाँ, कवितायेँ, नाटक, उपन्यास, व्यंग्य, चित्रों वाली किताबें हों अथवा ज्ञान-विज्ञान के अद्भुत संसार से परिचय कराती किताबें, हर विषय पर किताबें लिखी जाती हैं, बस जरूरत है, अपनी पसंद के हिसाब से किसी किताब के चुनने का.

उल्लेखनीय है, किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी इच्छानुसार हर पुस्तक खरीद पाना संभव नहीं है. इस समस्या का आसान- सा समाधान है, पुस्तकालय। पुस्तकालय का सदस्य बन कर वहां संग्रहित पुस्तकों, फ़िल्मों, पत्रपत्रिकाओं, मानचित्र, हस्तलिखित ग्रंथ, ग्रामोफोन रेकार्ड, ई-बुक्स एवं अन्य पठनीय सामग्रियों का लाभ उठाया जा सकता है. पर क्या सचमुच पुस्तक पढ़ने की चाह रखने वालों के लिए हम उनकी इच्छा पूरी कर पाने में सक्षम हैं? गौरतलब है, सूचनाओं को अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने की दिशा में कार्यरत अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ लाइब्रेरी एसोसिएशन एंड इंस्टीच्यूशन द्वारा तय पैमाने के मुताबिक हर ३००० की जनसँख्या पर एक सार्वजानिक पुस्तकालय होनी चाहिए। इस लिहाज से भारत की कुल जनसँख्या के हिसाब से यहाँ तक़रीबन ४ लाख सार्वजनिक पुस्तकालयों की आवश्यकता है जबकि लगभग ६०००० ही पुस्तकालयों का होना निराशा जगाता है. विद्यालयों खासकर सरकारी विद्यालयों में पुस्तकालयों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. बहुधा पुस्तकालय जैसी कोई व्यवस्था रहती नहीं हैं, और अगर रहती भी है तो कहीं कोने में पड़ी एक छोटी- सी अलमारी में कुछ किताबें 'पुस्तकें अनमोल धरोहर हैं' की तर्ज़ पर बंद रखी जाती हैं. विडम्बना यह कि मेरी प्रिय पुस्तक, मेरे प्रिय लेखक या पुस्तकालय का महत्व जैसे विषयों पर लेख बच्चे निबंध की किताबों से रट्टा मारकर हर साल परीक्षाओं मे लिख आते हैं. कक्षा में बैठाकर और टेक्स्टबुक रटाकर शिक्षा के असली मकसद को प्राप्त करना असंभव है। किताबें पढ़ने से शब्द ज्ञान और विश्लेषण क्षमता में विस्तार तो होगा ही साथ ही पढ़ने की क्रिया को और भी रोचक बनाया जा सकता है.

किताबों की उपलब्धता हरेक के लिए आसान और सुनिश्चित करने के लिए पुस्तकालयों के निर्माण को हमारी प्राथमिकताओं में शामिल करना होगा। चुनौती न केवल ज्यादा संख्या में पुस्तकालयों को बनाने की है वरन पुस्तकालयों का अधिक-से-अधिक किताबों और अन्य सामग्रियों से समृद्ध और लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकने में सक्षम होना भी जरूरी है. इसी मद्देनजर सन १९७२ में भारत के सांस्कृतिक विभाग द्वारा राजा राममोहन रॉय फॉउंडेशन की स्थापना की गयी. इसके अलावा भारत सरकार ने पुस्‍तकालय सेक्‍टर के विकास के लिए लम्‍बी अवधि की योजनाएं और रणनीतियां तैयार करने के लिये सन २०१२ में एक उच्‍च स्‍तरीय समिति 'राष्‍ट्रीय पुस्‍तकालय मिशन'(NML) का भी गठन किया है जिसका उद्देश्‍य राष्‍ट्रीय भारतीय वर्चुअल पुस्‍तकालय की स्‍थापना, मॉडल पुस्‍तकालयों की स्‍थापना, पुस्‍तकालयों का गुणात्‍मक / मात्रात्‍मक सर्वेक्षण तथा क्षमता निर्माण करना है। एशिया के सबसे बड़े साहित्यिक उत्‍सव-जयपुर साहित्‍य उत्‍सव का प्रत्‍येक वर्ष जनवरी माह में जयपुर में आयोजित किया जाना भी पुस्तकों को लेकर लोगों को जागरूक बनाने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है. इस सम्बन्ध में पुस्तकालय अधिनियम लागू करना भी उल्लेखनीय है जिसके तहत राज्य सरकार की सभी शिक्षण संस्थानों चाहे सरकारी हो या गैर-सरकारी, प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्च-शिक्षा तक के संस्थानों में पुस्तकालय का होना अनिवार्य कर दिया गया है. हालांकि अभी भी भारत के केवल १९ राज्यों में ही पुस्तकालय अधिनियम पारित किया जा सका है और उसपर भी कुछ राज्यों में यह अधिनियम अभी कुछ साल पहले ही लागू किया गया है. आशा है, जल्द-से -जल्द यह व्यवस्था देश के अन्य राज्यों में भी लागू कर दी जायेगी।

बाल किताबों को प्रकाशित करने वाली संस्था, प्रथम बुक्स का 'हर बच्चे के हाथ में किताब' योजना के तहत भारत की विभिन्न भाषाओँ में किताबें प्रकशित कर कम कीमत तक बच्चों तक पहुंचाने की कोशिश सराहनीय है. ' डोनेट अ बुक' या 'मिस्ड कॉल दो और कहानी सुनो ' जैसे कैम्पेन बच्चों में पढ़ने की आदत डालने के मकसद से चलायी गयी है. ऐसे कई एनजीओ हैं जो गांवों में बच्चों को शिक्षित करने के कार्य में लगे हुए हैं और कई पुस्तकालय इन ट्रस्ट व संगठनों द्वारा सुदूर इलाकों में चलाए जा रहे हैं.

कहा जा सकता है, ज्ञान आधारित समाज का निर्माण किया जाना किसी राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है और इस लक्ष्य को हासिल करने का अति महत्वपूर्ण साधन है, किताबें।