Tuesday 11 February 2020

इंटरनेशनल डे ऑफ़ वीमेन एंड गर्ल्स इन साइंस



कहते हैं इंसान मरने के बाद तारा बन जाता है। इसका तो पता नहीं, पर कई तारे इंसानों के नाम से जरूर जाने जाते हैं। ऐसा ही एक उदहारण है, सेक्सटन तारामंडल में अवस्थित एक पीला -सफ़ेद तारा 'बिभा', जिसका नामकरण भारत की एक प्रसिद्ध महिला भौतिकशास्त्री बिभा चौधरी( १९१३-१९९१) के नाम पर किया गया है।

चाय एंड व्हाई के पृथ्वी थिएटर में ५ फरवरी के सत्र के दौरान मुख्य वक्ता एवं वैज्ञानिक डॉ सुनील गुप्ता ने कॉस्मिक किरणों और म्युऑन टेलिस्कोप के बारे में बताते हुए बिभा चौधरी का ज़िक्र किया और ७० के दशक में कॉस्मिक किरणों के क्षेत्र में काम करते हुए दार्जीलिंग में हुई उनसे अपनी मुलाकात के बारे में बताते हुए कहा, "शी वाज शार्ट बट अ वैरी टफ लेडी"। उनके बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ गई. इंटरनेट खंगालने पर कुछ जानकारियां हासिल हुईं। आज भी जहाँ विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति उँगलियों पे गिनी जा सकती हैं, आज से करीबन एक सौ साल पूर्व उनके द्वारा इस क्षेत्र का चुनाव किया जाना और एक मुकाम हासिल करना निश्चित रूप से महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है। परन्तु, भौतिक शास्त्र की कई महान उपलब्धियों से जुड़े होने के वाबजूद इन्हें कम लोग ही जानते हैं, वर्षों तक यह सितारा गुमनामी के अँधेरे में ही खोया रहा है। यहाँ तक कि इंडियन अकादमी ऑफ़ साइंसेज द्वारा प्रकाशित किताब लीलावती डॉटर्स : वीमेन साइंटिस्ट्स ऑफ़ इंडिया में वर्णित ९८ महिला वैज्ञानिकों की जीवनी पर आधारित लेख में उनका नाम तक भी शामिल नहीं किया गया। अभी हाल ही में दो प्रमुख विज्ञान इतिहासकारों, जर्मनी के ओल्डेनबर्ग विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्रफेसर डॉ. राजिंदर सिंह और कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट के भौतिकी के पूर्व प्रोफेसर सुप्रकाश सी. रॉय द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ए ज्वैल अनअर्थेडः बिभा चौधरी' द्वारा हम उनके जीवन और विशेष रूप से विज्ञान के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदानों के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हासिल कर पाए हैं। इस किताब के हिसाब से वो समकालीन वैज्ञानिकों से किसी भी मामले में कम नहीं थी. साइंटिफिक जर्नल नेचर एवं प्रसीडिंग ऑफ़ द फिजिकल सोसाइटी ऑफ़ लंदन में छपे उनके पेपर को देखकर इस बात की पुष्टि होती है।
कलकत्ता विश्वविद्यालय से सन 1934-36 में भौतिकी में एमएससी की डिग्री लेकर वह उसी विभाग में प्रोफेसर डॉ देबेन्द्र मोहन बोस की देखरेख में शोध करने के लिए जुड़ गईं। उल्लेखनीय है कि एमएससी (भौतिकी) के 24 छात्रों के बैच में वह एकमात्र छात्रा थीं।
1938 और 1942 के बीच डी.एम. बोस के साथ मिलकर बिभा चौधरी ने फोटोग्राफिक प्लेटों का उपयोग करके मेसॉन की खोज पर काम किया और इससे संबंधित तीन शोध पत्र नेचर पत्रिका में भी प्रकाशित किए। दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संवेदनशील इमल्शन प्लेटों की कमी के चलते वह आगे काम जारी नहीं रख सकीं और वह पीएचडी के लिए मैनचेस्टर विश्वविद्यालय चली गईं। वर्ष 1945 में वह पी.एम.एस. ब्लैकेट की ब्रह्मांडीय किरणों की शोध प्रयोगशाला से भी जुड़ीं। उनके जुड़ने के करीब तीन साल बाद ब्लैकेट को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। उनकी डॉक्टरेट थीसिस का विषय 'एक्सटेंसिव एयर शॉवर्स एसोसिएटेड विद पेनिट्रेटिंग पार्टिकल्स' था जो कि उस समय पार्टिकल फिजिक्स में हो रहे खोजों में से एक महत्पूर्ण विषय था। गौरतलब है, इसी तकनीक (फोटोग्राफिक प्लेट का उपयोग) के सहारे पाइआन, मेसॉन किरणों की खोज करने के लिए वैज्ञानिक सी. एफ. पॉवेल को १९५० में नोबेल पुरस्कार दिया गया और पॉवेल ने इसके लिए भौतिकी प्रोफेसर बोस एवं बिभा चौधरी के योगदान को स्वीकारा भी था।
उस समय डॉ होमी जहांगीर भाभा ब्रह्मांडीय किरणों के क्षेत्र में ही काम कर रहे थे और वही वर्ष 1949 में बिभा चौधरी को टीआईएफआर में लेकर आये। वह टीआईएफआर से जुड़ने वाली पहली महिला शोधकर्ता थीं, जो 1957 तक वहां रहीं। एम.जी.के. मेनन और यश पाल टीआईएफआर में उनके समकालीन थे। उन्होंने टीआईएफआर के सहयोगियों के साथ वर्ष 1955 में इटली में पीसा में आयोजित मूल अणुओं पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भी भाग लिया था।
चौधरी 1960 की शुरुआत से ही कोलार गोल्ड फील्ड (केजीएफ) में प्रोटॉन क्षय परीक्षण परियोजना में भी शामिल थीं. भौतिक अनुसन्धान प्रयोगशाला (पीआरएल) जाने के बाद उन्होंने राजस्थान के माउंट आबू में एक और प्रयोग का प्रस्ताव दिया। वह व्यापक वायु बौछार से जुड़ी रेडियो आवृत्ति के उत्सर्जन का अध्ययन करना चाहती थीं। पुस्तक में बताया गया है,पीआरएल के तत्कालीन निदेशक साराभाई की मृत्यु के बाद शोध कार्यक्रम की योजना सफल नहीं हो पायी। दुर्भाग्यवश उनकी योजनाए सफल नहीं हुयी। इसके बाद, उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का निर्णय ले लिया और में अकादमिक और शोध कार्य करने के लिए कोलकाता वापिस लौट गईं, जहाँ मृत्युपर्यन्त वह अपने रिसर्च में ही लगी रहीं। उनका अंतिम शोध पत्र सह-लेखक के रूप में वर्ष 1990 में उनकी मृत्यु से एक साल पहले इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स में प्रकाशित किया गया।
उच्च दर्ज़े के काम के वाबजूद उन्हें अन्य प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के श्रेणी में न रखे जाने की क्या वजह रही? उन्हें भारत की तीन प्रमुख अकादमियों से न तो कोई फेलोशिप मिली और न ही उन्हें किसी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बिभा चौधरी पर लिखी गई इस किताब में इन वजहों को भी टटोलने का प्रयास किया गया है, महिला वैज्ञानिकों के प्रति अन्य वैज्ञानिकों के नज़रिये और इस क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं से जुडी चुनौतियों को भी समझने की कोशिश की गयी है।
आज भी विज्ञान का क्षेत्र महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता।जहाँ लड़कों को बचपन से ही इस क्षेत्र में जाने को प्रेरित किया जाता है वहीँ लड़कियों को लेकर इससे बिलकुल ही विपरीत मानसिकता होती है.।परिणामतः इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बहुत ही कम है। सरकारी आकंड़ों के अनुसार अनुसंधान और विकास गतिविधियों में कार्यरत कुल 2.82 लाख लोगों में से 14 प्रतिशत महिलाएं हैं। कुछ वर्ष पहले तक इंडियन नेशनल साइंस अकादमी के महिला फेलो की संख्या कुल सदस्यों की ५ प्रतिशत ही थी। अगर पुरस्कारों की बात करें तब देखते हैं, भारत सरकार द्वारा सं १९५८ से भारतीय वैज्ञानिकों को दिए जाने वाले शांति स्वरुप भटनागर पुरस्कार के ५५९ पुरस्कारों में से केवल १८ (३%) महिलाओं के हिस्से आये हैं। समस्या यह है कि जो महिलायें विज्ञान के क्षेत्र को करियर के रूप में चुनती भी हैं, उन्हें कई अवरोधों का सामना करना पड़ता है. महिला होने के नाते पुरुषों के मुकाबले कमतर समझा जाना, भूमिका का सीमित किया जाना, निम्न पदों पर नियुक्ति, घरेलू जिम्मेवारियों और रिसर्च के लिए लैब में कई घंटों तक लगे रहने की जरूत के मध्य सामंजस्य, कभी अनजाने में अथवा कभी जान बूझकर किया जाने वाला भेदभाव जैसी कई चुनौतियाँ उनके पिछड़ने का कारण बनती हैं. पर सुखद यह है कि कई महिलाओं ने इन सब अवरोधों को पार कर अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है. अगर भारत में ही देखें, चंद्रयान २ की मिशन डायरेक्टर रितू करिधल और प्रोजेक्ट डायरेक्टर एम. वनीता और इनफ़ोसिस साइंस फाउंडेशन द्वारा पुरस्कृत दो महिला वैज्ञानिक सुनीता सरावगी और मंजुला रेड्डी जैसे कुछ उदाहरण महिलाओं के लिए अनुकरणीय हैं।
हर वर्ष ११ फरवरी को हर वर्ष 'इंटरनेशनल डे ऑफ़ वीमेन एंड गर्ल्स इन साइंस' मनाया जाता है और आशा है कि अगले कुछ वर्षों में स्टेम शिक्षा (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथेमेटिक्स) में महिलाओं की बेहतर भागीदारी का स्वपन पूरा हो सकेगा।

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