Thursday 14 May 2015

समलैंगिकता क्या अपराध है?


पिछले महीने एम्स अस्पताल के एनस्थीसिया विभाग की 31 वर्षीय डॉ प्रिया वेदी की दिल्ली में आत्महत्या की खबर आई। प्राप्त ४ पृष्ठों के सुसाइड नोट के मुताबिक पति का समलैंगिक होना, अँधेरे में रखकर शादी कर देने से लेकर दहेज़ की निरंतर मांग और तद्पश्चात पति के द्वारा दी गई शारीरिक और मानसिक यातना को उसकी आत्महत्या की वजह माना जा रहा है ।बेशक उसके पति का समलैंगिक होना ही आत्महत्या की मुख्य वजह है।तत्पश्चात भारतीय दंड संहिता की धाराओं ३०४ B(दहेज उत्पीड़न के कारण मौत) और 498A (पति द्वारा पत्नी के साथ क्रूरता) के तहत मामला दर्ज कर एम्स में ही कार्यरत प्रिया के पति डॉ कमल वेदी को १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था। 

सवाल उठना स्वाभाविक है कि एक पढ़ी -लिखी, महानगर में रहने वाली और देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से वाकिफ एक आत्मनिर्भर लड़की ने अपने दर्द से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का ही विकल्प क्यों चुना ? अपने पति से अलग होकर एक नयी ज़िन्दगी की शुरुआत करने का ख्याल उसके मन में क्यों नहीं आया? निश्चित रूप से यह महज किसी एक लड़की की आत्महत्या का मामला नहीं है, वरन यह समाज में फैले तमाम बुराइयों की ओर इशारा है जिसे हम किसी वजह से सामने लाने से कतराते हैं. यह ऐसी कौन सी व्यवस्था है जहाँ आपसी प्रेम के गौण होने के बावजूद वैवाहिक बंधन को बचाये रखने और किसी तरह घूँट-घूँट कर ज़िन्दगी जीने को मजबूर करती है. दुर्भाग्यवश यह किसी एक जोड़े की कहानी नहीं, वरन लाखों लोग एक-दूसरे के साथ ज़िन्दगी गुजारने के लिए अभिशप्त हैं या फिर इसकी परिणति आत्महत्या के रूप में होती है. सवाल है कि गलती किसकी है और इसका हल क्या है? प्रिया वेदी के आत्महत्या के मामले में क्या दोष केवल कमल वेदी या प्रिया का ही है, या फिर हमारी दकियानूसी विचारधारा, भारतीय कानून या एक ढर्रे पर चलने की हमारी मजबूरी और समस्याओं को सुलझाने में हमारी असमर्थता  भी उतनी ही जिम्मेवार है ? 

समलैंगिकता और हमारा कानून 

प्रिया की आत्महत्या के बाद समलैंगिकता का मुद्दा फिर उठा है. अपने अंतिम फेसबुक पोस्ट द्वारा प्रिया ने समलैंगिक युवकों को शादी कर किसी की जिंदगी के साथ खिलवाड़ नहीं करने की सलाह दी है. सवाल जायज है की डॉ कमल वेदी ने शादी करने की स्वीकृति क्यों दी ? शादी से पूर्व अपने समलैंगिक होने की जानकारी अपने होने वाले जीवनसाथी को क्यों नहीं दी? क्या यह मान लेना उचित होगा कि उसे भविष्य में हो सकने वाले इसके दुष्परिणामों का आभास नहीं था ?और यदि शादी मर्ज़ी के विरुद्ध की गयी तब निश्चित रूप से विडम्बना ही है कि  इतने पढ़े-लिखे इंसान में भी सच का सामना कर सकने की हिम्मत नही होती है. पर यह भी उतना ही सत्य है कि अपने परिवार के सदस्यों की ख़ुशी की खातिर, समाज में अपनी इज़्ज़त बनाये रखने के लिए और यहाँ तक की जीने के लिए भी न चाहते हुए भी ऐसे लोगों को शादी के लिए तैयार होना पड़ता है. और तो और घर और संपत्ति से बेदखल तक कर देने की धमकी इन्हे चुप करने में अहम भूमिका निभाती है. 

हाँ, हमें भी इसके लिए एक सकारात्मक माहौल बनाकर मदद करनी होगी जैसे समलैंगिक औरत या मर्द को अपराधी समझना बंद करना होगा. यह मानना होगा कि समलैंगिता कोई बीमारी नहीं है जो समय के साथ अथवा शादी कर देने से ठीक हो सकती है।.

कानून का भी डर भी ऐसी दुखद स्थिति के लिए कम जिम्मेवार नही. समलैंगिकता को अपराध का दर्ज़ा देने वाले हमारे देश के कानून में बदलाव की आवश्यकता है. हालांकि जुलाई 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फैसले के तहत आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने नकार दिया। पर इस फैसले के उपरांत समलैंगिकता पर बहस छिड़ गयी है. समलैंगिक पुरुष या महिलाएं , उनके परिवारजनों या उनके जीवन साथियों की समझाने और स्थिति से उबारने में मदद करने हेतु कई गैर सरकारी संगठन अस्तित्व में आये हैं. जो की इनके अधिकारों के लिए काम कर रहे हैं.

हमारे देश जहाँ करीबन २.मिलियन समलैंगिकों के होने की रिपोर्ट है, जल्द से जल्द इस कानून में परिवर्तन किया जाना जरूरी है. साथ ही, जबरन विवाह को रोकने के लिए भी कड़े फैसले लिए जा सकते हैं।  मिसाल के तौर पर अभी हाल ही में यूके में कानून बनाकर जबरन विवाह पर रोक लगाने की कोशिश की गयी है. एंटी सोशल बिहेवियर, क्राइम एंड पुलिसिंग एक्ट 2014 के तहत ब्रिटेन और वेल्स में शादी के लिए मजबूर करने वाले व्यक्ति को सात साल की सजा तक दी जा सकती है।


सामाजिक व्यवस्था और शादी की परंपरा :

हमारी सोच, सामाजिक नियम -कानून और हमारा डर दरअसल समस्या की जड़ है. ऐसा समाज जहाँ बेटे-बेटियों की इच्छा, पसंद - नापसंद, ख़ुशी और सच्चाई से ऊपर मान-मर्यादा, दिखावा और शादियां निभाने जैसी बातों का महत्व है, जबरन शादी करने के लिए मजबूर करने से लेकर कष्टपूर्ण शादी को न तोड़ने की बाध्यता शामिल है. मामला इसलिए भी गंभीर है क्यूंकि हमारे समाज में ऐसे मुद्दों पर पर्दा डालने का रिवाज रहा है. औरतों के नजरिये से देखें, किसी समलैंगिक पुरुष से शादी हो जाने से उसे मानसिक कष्ट सहना पड़ता है और परिणामतः मनोवैज्ञानिक समस्याएं शुरू होने लगती है. हालांकि मदद के लिए काफी व्यवस्थाएं हैं , पर सच्चाई है कि औरतों को इसे समझने में, सबके सामने समस्याओं को प्रकट करने और कानूनी मदद लेने में इतना वक्त गुजर गया होता है कि एक तरह से क्षति हो चुकी होती है. 

हमारे समाज में प्रचलित अरेंजेड विवाह की व्यवस्था को भी नए सिरे से सोचना होगा। माँ-पिता द्वारा नियोजित इस विवाह में लड़का-लड़की को एक दूसरे को जानने का भी ढंग से मौका नहीं मिलता और अगर थोड़ा बहुत मिलता भी है तब शादी कर लेने के दवाब की वजह से लड़के अपने होने वाले जीवनसाथी से कुछ नहीं बताते. डेटिंग की अवधारणा को हमारे समाज में अपराध की नजर से देखा जाता है. इससे भी ज्यादा मुश्किल तब होती है जब कोई लड़की हिम्मत करके तलाक के बारे में सोचती है, चरित्र पर शक किया जाना और फिर सारा दोष लड़की के ऊपर ही मढ़ दिये जाने की प्रवृति भी शादी को न तोड़ने के निर्णय की वजह है. 'जिस आँगन में डोली में बैठकर जा रही हो, उसी आँगन से अर्थी भी उठे', गहराई से समाये ऐसी दकियानूसी विचारों को त्यागकर ही हम एक सुरक्षित माहौल बना सकते हैं। लड़कियों को जन्म के साथ ही शादी के लिए तैयार करने की मानसकिता में बदलाव लाना जरूरी है. 'शादी टूटी और ज़िन्दगी खत्म' को ही सच मानते रहे तब हत्याएं और आत्महत्यायें होती रहेंगी। 

नितांत जरूरी है कि शादी जैसे बंधन को गहराई से विचार किया जाये। इस रिश्ते की बुनियाद प्यार, एक- दूसरे के प्रति ईमानदारी, पारदर्शिता और आपसी संवाद हो. यक़ीनन समाज की ऐसी व्यवस्था से जूझते मर्द औरत सब है, पर इस पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ मर्द को विशेषाधिकार प्राप्त है, निश्चित रूप से पुरुषों की अपेक्षा औरतों को ज्यादा सहना पड़ता हैं और नतीजतन ऐसी ख़बरें सुनने को मिलती है. क्या किसी को भी रिश्तों के ऐसे जाल में उलझा देना सही है? 

परिवार का सहयोग 

बहस का मुद्दा यह भी है कि अगर प्रिया और कमल के परिवारों को कमल के समलैंगिक होने की जानकारी थी तो उन्होंने इसे नजरअंदाज क्यों किया। किसी भी समलैंगिक इंसान को शादी के लिए जबरदस्ती मनाना गलत है.ऐसी स्थितियों में परिवार के बड़े- बुजुर्ग ही दूरदर्शिता नहीं दिखाएंगे, तब कौन दिखायेगा? सही निर्णय लेने में परिवार की अहम भूमिका होनी चाहिए. और यदि शादी हो भी गयी तब समय रहते सही निर्णय लेने से मामले के बिगड़ने की नौबत ही नहीं आती. अपने परिवारजनों के सहयोग से घूँट-घूँट कर जीवन जीने के लिए मजबूर प्रिया शायद यह समझ पाती की रिश्ते सुधरने और पति के बदलने की उम्मीद नहीं है. शायद प्यार और भावों के ऊपर नियंत्रण कर सही दिशा चुनने में मदद मिल जाती। जीवन को नए सिरे से शुरू कर सकने में अपने को सक्षम बना पाती और सही और गलत का निर्णय कर पाती . 

ज़िन्दगी फूलों की सेज नहीं है, उतार- चढाव ज़िन्दगी का हिस्सा है. क्यों दुखद परिस्थितयों में मित्रों की सहायता, परिवारजनों से विचार-विमर्श कर हल निकालने का विचार एकदम गौण हो जाता है. मनोविश्लेषकों और अन्य संगठनों की मदद ली जा सकती थी। खबर है कि प्रिया वेदी ने पहले भी आत्महत्या करने का प्रयास किया था, तब भी कुछ सुधारने की कोशिश पूर्णरूप से नहीं की गयी. हमें समस्याओं को लेकर अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा, समस्याओं के समाधान में मानसिक परिपक्वता लानी होगी। सच का सामना कर और अपने बच्चों का सहयोग कर काफी कुछ परिवर्तित किया जा सकता है.


निश्चित रूप से इस दुखद घटना ने ऐसी परिस्थिति से गुजर रहे युवाओं को खुद के बारे में सोचने और समाज को उनके बारे में विचार करने पर मजबूर किया है.