Friday 27 November 2020

गणित के साथ एक मधुर रिश्ता बनाती है मैथ्स विद बैड ड्रॉइंग्स: बेन ओर्लिन की पुस्तक


१०० में १०० यानी १००%, १०० में ९९ मतलब ९९%, ९८ में ९६ का अर्थ ? घबराइये मत, बात यहाँ गणित की किताब की होगी परन्तु सवाल हल नहीं करने हैं, गणित में आप कितने तीस मार खां हैं, उसका भी निर्णय नहीं करना है।  बात है तो बस गणित के वास्तविक दुनिया से अभिन्न रिश्ते की! ज्यामिति के अंतर्गत सीखे गए विभिन्न आकारों , प्रायिकता के सिद्धांत, सांख्यिकी के आंकड़ें इत्यादि को क्या वाकई हम पुलों के स्ट्रट और स्तम्भों के बीच सम्बन्ध, मिस्र के पिरामिड, लोगों के मध्य बहुत प्रचलित लॉटरी, २००८ की आर्थिक मंदी या फिर चुनावों के गणित आदि से जोड़ कर देख सकते हैं? गणित को समझना सबके बस का नहीं, इस अवधारणा के विपरीत मैथ शुड बिलोंग टू  एवरीवन' उद्देश्य के साथ गणित के शिक्षक रह चुके बेन ओर्लिन ने  यह किताब  लिखी है. 'मैथ्स विद बैड ड्रॉइंग्स ' में फॉर्मूले, समीकरण, लम्बे चौड़े समाधान आदि नहीं हैं वरन आम जिंदगी में गणित विषय के महत्त्व को समझाने की कोशिश है। कई उदाहरणों और साथ- साथ इन उदाहरणों से जुड़े तक़रीबन ४०० मजेदार चित्रों का संकलन है। निश्चित रूप से किताब का ये शीर्षक और 'बैड ड्रॉइंग्स'  के साथ गणित को समझाने का यह अनोखा तरीका किताब के प्रति उत्सुकता तो जगाता ही है और साथ ही विषय को समझने में मददगार भी साबित होता है।

 गणित विषय को लेकर अमूमन विद्यार्थियों एवं यहाँ तक कि काफी संख्या में वयस्कों में भी एक अनजाने भय का होना एक विश्वव्यापी समस्या है। एक शिक्षक के तौर पर काम करते हुए अपने अर्जित अनुभवों के आधार पर लेखक ने अपनी किताब की भूमिका में इस समस्या की चर्चा भी की है। लम्बे-चौड़े सवालों का समाधान करने में माहिर बच्चे गणित और अपनी ज़िन्दगी के  मध्य कड़ी को समझने में नाकामयाब होते हैं।  बच्चा टेक्स्टबुक के मैथ और उसके उपयोग के बीच तार नहीं जोड़ पाता ,हम यह क्यों पढ़ रहे हैं, इसका उपयोग क्या है? अतिरिक्त नम्बरों का दबाब, जल्द-से-जल्द सवाल करने पर जोर आदि कई बातें है जिससे बच्चे गणित से दूर भागने लगते हैं और  होती है गणित के साथ ख़राब रिश्ते की शुरुआत।  निसंदेह बदलाव होने चाहिए जैसे विषयों की सामग्री, पढ़ाने के तरीकों  या फिर जांच के तरीकों इत्यादि। 

इस किताब के  कुछ शीर्षकों पर नजर  डालते हैं, हाउ टू थिंक लाइक ए मैथेमैटिशियन या फिर डिफरेंस बिटवीन गुड एंड बैड मैथेमैटिशियन, द रेप्लकेशन क्राइसिस ऑफ़ साइंस या केऑस थ्योरी ऑफ़ हिस्ट्री, हैं  न अजीब से ! अपनी जिंदगी से उठाये कुछ किस्से या फिर कई घटनाओं को हास्य का पुट देने का उनका अंदाज़ जहाँ पुस्तक को मनोरंजक बनाता  है वहीँ विषय की गहराई को पाठकों तक पहुँचाने से कहीं भी नहीं चूकते। गणित में उपयोग होने वाले अजीबोगरीब चिन्ह और उनके मायने, गणितज्ञों के  सोचने के तरीकों, आर्किटेक्ट की पसंद त्रिभुज ही क्यों, A4 पेपर लम्बाई और चौड़ाई  को चुनने के पीछे का तर्क, बीमा योजनाओं और इसी तरह २४ अध्यायों में बँटी  इस पुस्तक के हर अध्याय में एक भिन्न विषय पर चर्चा! विषयों की विविधता तो है ही  और साथ ही, सोचने पर जोर देती है ये पुस्तक। गणित है क्या, सोचने का कुशल तरीका!

एक बात हम भारतीयों को खटक सकती है और वह है इस किताब के सभी उदाहरणों का USA  जीवनशैली अर्थात वहां  की बोलचाल के तरीकों, खेल, मूवी, गानों, राजनीति आदि पर आधारित होना। 

अमूमन मैथ्स विषय पर लिखी गयी किताबें उस विषय के जानकार ही पढ़ने के इच्छुक होते हैं परन्तु यह किताब उन सबके लिए है जो या तो एक डर की वजहसे इस विषय से भागते हैं, या फिर जो इस विषय को और भी गहराई से जानना चाहते हैं। 

 जाने -पहचाने गणित की अवधारणाएं  और अधिक स्पष्ट होगी। विशेष रूप से सातवीं से दसवीं कक्षा में पढ़ रहे बच्चों के लिए  उपयोगी साबित हो सकती है, भले ही इस किताब को पढ़कर तत्काल ज्यादा अंक हासिल करने में कामयाबी न मिले परन्तु गणित के प्रति एक सकारात्मक नजरिये को विकसित करने  में सहायता जरूर मिलेगी।


 

Thursday 3 September 2020

माइ बॉडी माइ चॉइस: यू एस ए और मास्क (2)

हमारी वर्तमान समझ के हिसाब से उचित तरीके से मास्क का उपयोग कर इस संक्रमण से काफी हद तक बचा जा सकता है। अगर नजर डालें, तब यह बात प्रमाणित भी हुई है कि जिन देशों में लोगों ने मास्क लगाने को गंभीरता से लिया है,उन देशों में संक्रमण की दर काफी कम है।

'वैक्सीन' का सभी को बेसब्री से इंतज़ार है ताकि हम जल्द- से -जल्द अपनी सामान्य ज़िन्दगी में वापिस लौट पायें। परन्तु इसके बन पाने और उसके बाद व्यापक रूप से टीकाकरण में कितना समय लगेगा, यह अभी कहा नहीं जा सकता। तब तक हमें संक्रमण से बचने के विभिन्न उपायों यथा मास्क का उपयोग, हाथों को धोते रहना, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन,जरूरी कामों के लिए ही बाहर निकलने इत्यादि को अपने दैनिक जीवन-व्यवहार में समाहित करना ही होगा, यह तय है। ऐसे में, कुछ देशों में हो रहे एंटी मास्क प्रोटेस्ट का किया जाना चिंतनीय है. और-तो-और इग्नाइट फ्रीडम हैशटैग के साथ फेसबुक पर 'बर्न योर मास्क चैलेंज' पोस्ट डालकर लोगों को अपने- अपने मास्क जलाकर वीडियो पोस्ट करने के लिए उत्साहित किया जाना या फिर कैलिफ़ोर्निया में मास्क पहनने को अनिवार्य घोषित किये जाने के बाद एक उच्च सरकारी अधिकारी को जान से मार दिए जाने की धमकी दिए जाने जैसी घटनाएं निंदनीय भी। 

इन्हीं घटनाओं के सन्दर्भ में कुछ दिन पहले ही फ्लोरिडा में कुछ लोगों ने एकजुट होकर अपने मास्क के विरुद्ध होने के कारणों को गिनाया।इन कारणों में सरकारों द्वारा 'मास्क' को अनिवार्य घोषित किये जाने से लोगों की स्वयं निर्णय लेने की स्वतंत्रता का हनन से लेकर प्लें -डेमिक जैसी कन्स्पिरसी थ्योरी तक शामिल थे । एंटी- वैक्सीन एक्टिविस्ट के रूप में जाने जानी वाली जुडी मिकोविट्स की २६ मिनट की डॉक्युमेंटरी का भी ज़िक्र था जिसमें बड़े-बड़े फार्मा कंपनियों के साथ - साथ बिल गेट्स एवं विश्व स्वाथ्य संगठन को भी इस महामारी के लिए दोषी ठहराया गया है। सोशल मीडिया पर यह खूब वायरल भी हुआ। हालांकि जल्द ही गलत सूचनाएं प्रसारित करने के लिए इसे कड़वी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा और तुरंत ही फेसबुक, यूट्यूब, वीमियो ,ट्विटर आदि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से इस विवादास्पद वीडियो को हटा भी दिया गया। इस वीडियो में किये गये दावे जैसे किसी एक लैब में वायरस का निर्माण या इस वायरस के टीकाकरण के माध्यम से लोगों में इंजेक्ट किया जाना या फिर मास्क पहनने से कोरोनोवायरस संक्रमण होने का खतरा आदि ने कुछ लोगों को भड़काने का काम किया। 

यूएसए के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मास्क को लेकर रवैये ने भी आग में घी का काम किया। जहाँ CDC (सेंटर्स फॉर डिजीज कण्ट्रोल) द्वारा मास्क न लगाने को 'एक क्रूर गैर जिम्मेदाराना हरकत और किसी की हत्या करने के समान' घोषित किया जाता है वहीँ ट्रम्प द्वारा इसे 'स्वैच्छिक' घोषित किया जाना हास्यास्पद है. उनके द्वारा दिए गए कई बयानों की भी मास्क के उपयोग को लेकर देश में अजीब सी परिस्थिति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। अपने दौरे के दौरान कई जगहों पर राष्ट्रपति ट्रम्प कानून के खिलाफ जाकर बिना मास्क पहने दिखाई दिए। हालाँकि विशेषज्ञों और कई राज्य सरकारों द्वारा बार -बार अनुरोध किये जाने के उपरांत उन्होंने मास्क पहनने के महत्त्व को समझा और इसके परिणामस्वरूप मास्क का विरोध करने वाले कई लोगों ने अपने विचारों में बदलाव भी किये!

Tuesday 11 August 2020

माइ बॉडी माइ चॉइस: यू एस ए और मास्क


भविष्य में सन २०२० को कोरोना वायरस के साथ ही याद किया जाएगा।और, इस महामारी से जुड़े कुछ अन्य शब्दों से भी -वैक्सीन ,हर्ड इम्युनिटी, लॉकडाउन,सोशल डिस्टेंसिंग, क्वारंटाइन, हैंड वाश या फिर मास्क इत्यादि।तक़रीबन ८ महीने पहले चीन के वुहान शहर से दुनिया भर में फैली इस महामारी से करीबन ७लाख लोगों की जानें गयी हैं वहीँ कुल संक्रमित लोगों की संख्या १ करोड़ ८७ लाख के करीब है। अभी भी संक्रमण का सिलसिला रुका नहीं है और इसका भविष्य अनिश्चित- सा है। ऐसे में, हमारे हित में है कि हम इस संक्रमण से बचकर रहें और सरकारों या इस क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा संक्रमण से बचने सम्बन्धी ज़ारी दिशा -निर्देशों का पालन करें।
इस संक्रमण से बचने के सन्दर्भ में शुरूआती ना-नुकुर के बाद लगभग हर देश की विभिन्न स्वास्थ्य एजेंसियों द्वारा जिस एक बात पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है वह है, मास्क का उपयोग। दुनिया भर के कोरोना वायरस के प्रकोप से जूझ रहे अधिकांश देशों में घर से बाहर निकलने पर मास्क लगाने को कानूनन अनिवार्य घोषित कर दिया गया है। बार -बार कहा जा रहा है कि प्रत्येक को मास्क लगाने के साथ -साथ सोशल डिस्टन्सिंग का कड़ाई से पालन करना चाहिए ताकि हम इस महामारी पर अपना नियंत्रण न खोएं।
फिर क्या वजह है कुछ देशों संयुक्त राज्य अमेरिका या ब्रिटेन में एंटी मास्क प्रोटेस्ट का। यक़ीनन इन देशों के भी ज्यादातर नागरिक मास्क लगाने की जरूरत को लेकर एकमत हैं वहीँ कुछ लोग मास्क के विरोधी भी। अमेरिका के कई राज्यों में कुछ लोगों द्वारा एंटी मास्क प्रोटेस्ट किये गए। और-तो और कुछ राज्यों की सरकारें भी इनके साथ खड़ी नजर आईं। महामारी के दुखद दौर में भी इस मुद्दे को राजनीतिक रंग दे दिया गया।डेमोक्रेटिक मास्क लगाने के पक्षधर और रिपब्लिकन मास्क विरोधी।एक तरफ कई प्रतिष्ठित प्रतिमाओं मसलन न्यूयोर्क पब्लिक लाइब्रेरी के बाहर लगी सिंह की प्रतिमा या फिर न्यूयोर्क स्टॉक एक्सचेंज के प्रवेश स्थान पर द फियरलेस गर्ल आदि के फेस मास्क लगाये फोटो प्रसारित कर लोगों को मास्क लगाने प्रेरित किया जा रहा है, वहीँ दूसरी तरफ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन मानकर समाज के कुछ प्रतिशत लोगों द्वारा इस आदेश का जमकर विरोध किया गया है।
संक्रमण के खतरे को कम करने में कारगर कपडे के एक छोटे- से टुकड़े को लेकर अमेरिका जैसे विकसित देश में मचा बवाल कई सवाल खड़े करता है।विरोधियों की नजर में मास्क इस्तेमाल करने वालों को एंटी अमेरिकन, पैरानॉयड कहा जा रहा है। 'माइ बॉडी माइ चॉइस ' का नारा लगाकर मास्क लगाने के आदेशों का जमकर विरोध किया गया है। कहीं कुछ दुकानों में मास्क पहनने वाले ग्राहकों को दुकानों में प्रवेश से प्रतिबंधित किया गया तो कहीं ग्राहकों द्वारा दुकानों में मास्क अनिवार्य किये जाने की स्थितिमें सुरक्षा कर्मियों के साथ झड़पें, गाली देने, दरवाजा पटकने और जोर -जोर से चिल्लाने जैसी खबरें सामने आयी. राह चलते लोगों के मास्क खींचने और उनके मुंह पर छींकने - खांसने जैसी हरकतें निंदनीय है तब जबकि इस बात को प्रमाणित किया जा चुका है कि 'मास्क वर्क्स'। कुल ५ मिलियन केसेस और १६३००० मौतों के बावजूद मास्क को लेकर इतना विरोध क्या मूर्खता नहीं है? निसंदेह कुछ लोगों की ऐसी विकृत सोच पूरे समाज के लिए घातक है।

Thursday 2 April 2020

कोरोना, लॉकडाउन और हम



अचानक से घोषित हुए लॉकडाउन की वजह से कई लोगों को महीने के अंत में मिलने वाले भुगतान को भी ले पाने का समय नहीं मिल पाया। मोहम्मद मेरे घर में नारियल पानी रोज़ाना पहुंचाता है, महीने के अंत में पेमेंट ले जाता है। २-३ दिन पहले उसका फ़ोन आया मैडम नीचे आपके गेट पर खड़ा हूँ, आप इस महीने का पेमेंट कर दीजिये। ठीक है, मैं नीचे आती हूँ। नीचे आकर पैसे दूर से थमाते हुए मैंने कहा, लॉकडाउन खत्म होते ही आप नारियल देना शुरू कर सकते हैं। उसका जवाब था, ये खत्म होगा तो पहले १० दिन के लिए गांव जाऊँगा। अभी नहीं जा पाया, सब बंद हो गया है। क्यों जायेंगे गाँव? अभी तो जाकर आये थे कुछ दिन पहले, मैंने कहा। उसका जवाब था, माँ -पापा वीडियो कॉल करता है, बहुत रोता है, कहता है यहाँ आ जाओ, जो होगा यहीं साथ में होगा।
मैंने पूछा, कुछ हुआ आपको यहाँ, आपके माँ -पापा भी ठीक है, घर में रहिये कुछ नहीं होगा। उसने भी कहा, हाँ बस टॉयलेट के लिए निकालता हूँ, बाकी समय अपने कमरे में ही रहता हूँ। वह तो पैसे लेकर चला गया और मेरे सामने ट्रेन स्टेशनों पर लोगों की लम्बी कतारों, बसों की छतों पर लदकर जान हथेली पर लेकर , मिल्क और आयल टैंकर के अंदर किसी तरह छिपकर या फिर धूप में पैदल चलते अपने परिवारों के साथ इस मुश्किल समय में किसी तरह अपने गाँव पहुँचाने को आतुर लोगों की तस्वीरें उभरने लगी। भूखमरी के अलावा कईअन्य कारण रहे लोगों के मन में लॉकडाउन के बीच में अपने गाँव जल्द से जल्द पहुँच पाने के निर्णय लेने के पीछे। हालांकि सरकार ने लॉकडाउन की सफलता के मद्देनजर इस समस्या पर तुरंत कार्यवाही की और लोगों की आवाजाही पर रोक लगाई।
सवाल है कि क्या हमें इसका अंदाजा न था? पर क्या कोई अन्य उपाय था सख्ती से अपनाये गए लॉकडाउन के अलावा ? यह सत्य है कि इस आकस्मिक आई आपदा को लेकर कोई भी देश तैयार न था, हालांकि देशों द्वारा कई वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों की चेतावनियों का नजरअंदाज किये जाने से भी इंकार नहीं किया जा सकता है है. उदाहरण के तौर पर बिल गेट्स द्वारा दिया गया TED टॉक, जिसमें यही मुद्दा उठाया गया था।खैर, कोरोना वायरस चीन से निकलकर दुनिया के अधिकतर देशों में फैल चुका है. अमेरिका,स्पेन, इटली, यूके, फ्रांस, जर्मनी जैसे अतिविकसित स्वास्थ्य सुविधाओं वाले देश भी संक्रमण रोक पाने और संक्रमित लोगों को बचा पाने में पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहे हैं।
आइये, देखते हैं इस महामारी पर काबू पाने के लिए देशों द्वारा किन रणनीतियों पर विचार किया गया। पहला मॉडल है, डू नथिंग। दूसरे को मिटिगेशन और तीसरे मॉडल को सप्रेशन यानि दमन विधि कहते हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है डू नथिंग का मतलब है, आम जन को कुछ एहतियात बरतने के दिशानिर्देशों के अलावा कोई खास सख्त कदम न उठाना। जहाँ 'हर्ड इम्युनिटी' का तर्क इससे जुड़ा है अर्थात जनसंख्या के एक निश्चित अनुपात के संक्रमण के पश्चात वायरस संक्रमण फैलाने में विफल होंगे और इस तरह से हम वायरस के ऊपर अपनी जीत हासिल करेंगे वहीँ ज्यादा मात्रा में संक्रमण फैलने से स्वास्थ्य-सुविधाओं पर पड़ने वाला बोझ या फिर वायरस के म्यूटेशन की अवधारणा की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। साथ ही,कोलैटरल डैमेज भी इस मॉडल का एक नकारात्मक पक्ष है.अस्पतालों में भीड़ और चिकित्सकों की कमी की वजह से कोरोना वायरस से संक्रमण के अलावा अन्य रोगों से पीड़ित मरीजों की हालत बिगड़ने की संभावना . साथ ही, इस वायरस में म्यूटेशन अन्य इन्फ्लुएंजा वायरसों की तुलना में कम देखा जा रहा है, परन्तु नगण्य नहीं। इस तरह से इम्युनिटी को लेकर निश्चिन्त होना बेवकूफी भी साबित हो सकती है। एक बार संक्रमित हुए लोगों के पुनः इसी वायरस के नए स्ट्रेन से बीमार हुए जाने को नकारा नहीं जा सकता। शुरुआत में अपनाई गयी इस रणनीति के बुरे परिणामों की वजह से कुछ देशों को दूसरी रणनीति पर विचार करने पर मजबूर किया. संक्षेप में, अनियंत्रित कोरोना वायरस का एकमात्र अर्थ महसूस किया गया, स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरी तरीके से ढह जाना और बढ़ी मृत्यु- दर ।
अगली दोनों रणनीतियों का मकसद है, मृत्यु दर को कम- से -कम रख पाना।
मिटिगेशन के अंतर्गत यह माना जाता है कि हालांकि वायरस को फैलने से रोकना संभव नहीं है, परन्तु कुछ तरीकों से संक्रमण के सबसे ऊँचे स्तर तक पहुँचने से रोका जा सकता है ताकि हेल्थ केयर सिस्टम इसे बेहतर तरह से निपटने में कामयाब हो. रास्ता है, सोशल डिस्टन्सिंग को लेकर थोड़े सख्त कदम उठाये जाएँ।
तीसरी विधि है, सप्रेशन यानि दमन विधि।
इसका ध्येय कई कठोर कदम उठाकर महामारी को पूरे तरीके से नियंत्रण में ले लेना है। तत्पश्चात, धीरे धीरे सबकुछ सामान्य करने की प्रक्रिया शुरू की जाती है, एक -एक करके।
इससे मृत्यु- दर को बढ़ने से रोका जा सकना संभव हो सकता है। लोगों के बाहर न निकलने से संक्रमण तेजी से नहीं फैलता, स्वस्थ्य सुविधाओं पर एकाएक बोझ नहीं पड़ता जिससे ज्यादा- से -ज्यादा लोगों की जान बचाना संभव है।
हेवी सोशल डिस्टेंसिंग का आदेश, जो हम भारत में देख रहे हैं, इसी रणनीति का हिस्सा है। कुछ अति जरूरी सुविधाओं को छोड़कर सब कुछ बंद करने का निर्णय! स्कूल-कॉलेज, दफ्तर बंद, जहाँ संभव है वर्क फ्रॉम होम की सुविधा देने का आग्रह, किसी से अनावश्यक मिलने -जुलने पर पाबंदी, सब्जियों-फलों और अनाजों के मिलने के निर्धारित समय तय कर दिया जाना आदि।

हमारे देश की स्वस्थ्य सुविधाओं की हालत किसी से छिपी नहीं है, इतने बड़े देश में महज ३५००० के करीब सरकारी अस्पताल, डॉक्टर एवं अन्य मेडिकल स्टाफों की कमी , उँगलियों पर गिने जाने वाले ICUs और वेंटिलेटर इत्यादि सामान्य दिनों में ही हमारी जरूरतों को पूरा कर पाने में अक्षम हैं तो इस महामारी के फैलने और इन सुविधाओं की बदौलत हम यह लड़ाई कैसे जीत पाएंगे? ऐसी दशा में, सरकार द्वारा लॉकडाउन किये जाने का निर्णय सोच समझकर उठाया गया कदम है।
कुछ दिनों की मिली मोहलत भी हमें कई जानें बचाने में मददगार साबित हो सकती है. जहाँ एक तरफ लॉकडाउन से संक्रमित लोगों की संख्या के कम रहने की उम्मीद है वहीँ लोगों को इस बीमारी को लेकर जागरूक बनाया जाना संभव है. अस्पतालों में जरूरी सामानों मसलन मास्क, PPE s (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट), ECMO s ब्लड ऑक्सीजन मशीन और वेंटीलेटर्स जुगाड़ किया जा सकना संभव होगा। इस बीच स्वेच्छा से इस आपदा को निपटने को तैयार को तैयार वालंटियर्स को प्रशिक्षण देकर महामारी पर काबू पाने सकने में भी उनका योगदान लिया जा सकता है। इस समस्या की बेहतर समझ हासिल की जा सकती है, उठाये गए कदमों और उससे होने लाभों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता और उसकी सीख लेकर भविष्य की रणनीतियां तय की जा सकती है। वायरस के बारे में दुनिया भर में रिसर्च किये जा रहे हैं, हर दिन हमें एक नयी जानकारी हासिल हो रही है, उससे भी इस विषाणु के बारे में हमारी समझ बढ़ेगी, वैक्सीन निकला जाने की भी आशा है. टेस्ट करने के तरीकों में बदलाव हो रहे हैं मसलन बाइनरी सर्च तकनीक अपनाकर ज्यादा से ज्यादा लोगों समय में किया जा सकने में सफल हो सकतेहैं. तब तक हमें इस महामारी को नियंत्रण में रखना है. क्या यह उचित होगा कि डू नथिंग अथवा मिटिगेशन स्ट्रेटेजी अपनाकर लाखों लोगों को मरने दें?
निश्चित रूप से सप्रेशन स्ट्रेटेजी के फायदे हैं, पर सवाल है कि कब तक? क्या कीमत चुकानी पड़ेगी?
सोशल डिस्टेंसिंग के क्या कीमत चुकानी पड़ेगी? क्या लोग लम्बे समय तक इसे स्वीकार कर पाएंगे?अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा? क्या इस विधि से समस्या का समाधान पूर्णतः संभव है? क्या समस्या को बस हम थोड़ा स्थगित तो नहीं कर रहे? क्या ऐसा संभव है कि एक बार सख्त कदमों को हटाए जाने के उपरांत
पुनः समस्या हमारे सामने होगी और लाखों लोग संक्रमण का शिकार होंगे?
समस्या बहुत कठिन है । बेशक हमें जितना अधिक समय मिलेगा हम इस समस्या के साथ मुकाबला करने में उतने ही अच्छे से तैयार हो सकेंगे। लॉकडाउन के बाद निर्णय लिया जा सकेगा कि किन जगहों पर आक्रामक कदम उठाये जाएँ और कहाँ लॉकडाउन में ढीलापन लाया जा सकता है?

संक्रमण फैलाने की दर को कम से कम रखे जाने की दिशा में ज्यादा -से- ज्यादा लोगों को टेस्ट करना और ट्रेसिंग ऑपरेशन मतलब संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आये लोगों को क्वारन्टिन किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

चीन में बीमारी के फैलने के ३-४ महीने बाद धीरे -धीरे जिंदगी के पटरी पर आने, वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन बना पाने के करीब पहुँचने की खबरों के साथ साथ हर दिन दुनिया भर में और अधिक लोगों के संक्रमित होने, मरने की नकारात्मक खबरें भी हैं. जरूरत है, हम इस लॉकडाउन को सफल बनाने में सरकार का सहयोग करें। कुछ बातों जैसे खांसते और छींकते वक्त टिश्यू का इस्तेमाल, बिना हाथ धोये अपने नाक और मुँह को न छूना, किसी से भी हाथ न मिलाना, या फिर संक्रमित व्यक्ति और साथ- साथ ज्यादा लोगों के संपर्क में आने से बचना, पर्सनल हाइजीन के अलावा पर्यावरण को भी स्वच्छ रखने की दिशा में कदम उठाना आदि का ख्याल रखें।

Thursday 19 March 2020

अंतरिक्ष से जुड़ी बातें!



ब्रहमाण्ड की कई गुत्थियों को समझने की दृष्टि से भारत की कई अंतरिक्ष परियोजनाएं जैसे मंगलयान, चंद्रयान१ या चंद्रयान २ काफी मत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा भविष्य की प्रस्तावित अन्य परियोजनाओं जैसे चंद्रयान ३, आदित्य १ या फिर गगनयान को लेकर भी लोगों में उत्साह है।दिन, रात, तारे, बादल, ग्रह, उल्का पिंड, धूमकेतु इत्यादि आदि काल से ही इंसानों की जिज्ञासाओं के केंद्र में रहे हैं। अभी हाल में भी लोगों द्वारा रात भर जागकर अपने अंतरिक्ष यान की प्रगति को देखने की खबर से भी यही कहा जा सकता है कि अंतरिक्ष को लेकर हमारी उत्सुकतायें कम नहीं हुई हैं। विश्व भर में अंतरिक्ष को लेकर दिलचस्पी है और कई देशों में अंतरिक्ष सम्बन्धी परियोजनाओं पर काम चल रहे हैं। हालांकि यहाँ उल्लेखनीय है कि यह अब महज जिज्ञासा शांत करने का विषय नहीं, वरन अब तो यह देशों के लिए आर्थिक दृष्टिकोण के साथ-साथ सामरिक महत्व से भी जुड़ा है। अंतरिक्ष पर नियंत्रण और प्रभुत्व को लेकर देशों के बीच एक होड़ भी चल रही है। मोबाइल,इंटरनेट, टीवी जैसी संचार सुविधाओं से लेकर सैन्य गतिविधियों के मसले इन परियोजनाओं से ही जुड़े हैं। साथ ही, इन्हीं कार्यक्रमों के दम पर अंतरिक्ष में खनिज दोहन या फिर अंतरिक्ष पर्यटन जैसी बातें की जा रही हैं। संक्षिप्त रूप में कह सकते हैं कि अन्तरिक्ष कार्यक्रम देश की सुरक्षा, आर्थिक प्रगति और सामाजिक अवसरंचना की रीढ़ है।
लोगों की इस क्षेत्र में दिलचस्पी ही कारण कही जा सकती है जिसके कारण कई फिल्म निर्माताओं ने भी हमें फिल्मों के माध्यम से अंतरिक्ष में ले जाकर एक ऐसी दुनिया की सैर कराने की कोशिश की है जिसकी आम इंसानों के लिए धरती पर बैठकर कल्पना करना मुश्किल है।साई -फाई फ़िल्में! कोई हमें चाँद के बारे में बता रहा है, कोई मंगल ग्रह का भ्रमण करा रहा है, या फिर किसी अंतरिक्ष यात्री की दास्ताँ सुना रहा है. कहीं दूसरे ग्रह पर जीवन ढूढने की कवायद है या कहीं एलियन की परिकल्पना है, तो कहीं सोलर स्टॉर्म फिल्म के केंद्र में है। इन फिल्मों में कुछ वैज्ञानिक तथ्यों को भी शामिल किया गया है और वहीँ कुछ कल्पनाओं का सहारा भी लिया गया  है।
अंतरिक्ष और उससे जुडी कई अन्य अवधारणाओं पर IMDB पर बेस्ट स्पेस मूवीज की श्रेणी में ३७ फिल्मों के नाम दर्ज़ हैं। जैसे, क्रिस्टोफ़र नोलन द्वारा निर्देशित २१०४ में आई फिल्म 'इंटरस्टेलर' अंतरिक्ष यात्रियों के एक दल के किसी वर्महोल के जरिये मानवों के लिए नए ठिकाने की खोज हेतु यात्रा पर निकलने की कहानी है। धरती अब मनुष्यों के रहने लायक नहीं बची एवं मानव जाति का अस्तित्व खतरे में है, इसी को बचाए रखने की खातिर नए ग्रह की तलाश को इंटरस्टेलर में दिखाया गया है। इसी तरह, बेहद खतरनाक और आक्रामक एलियंस से अचानक से हुई मानवों की मुलाकात और भिड़ंत की कहानी है सन १९७९ की फिल्म 'एलियन', वहीँ स्टेनली कुब्रिक द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'ए स्पेस ओडीसी' मशहूर लेखक आर्थर क्लार्क की लघु कहानी "द सेंटिनल" पर आधारित है। इसी श्रेणी की एक और फ़िल्म है, ग्रैविटी(२०१३)। बमुश्किल ४-५ चरित्रों के साथ डेढ़ घंटे की फिल्म। सरल-सी कहानी परन्तु अंतरिक्ष में फैले कचरे को लेकर एक गंभीर सवाल खड़ी करती हुई !अंतरिक्ष में भेजे गए हेब्बल टेलिस्कोप में कुछ मरम्मत करने पहुंचे अमेरिकन अंतरिक्षयात्रियों के एक दल के इर्द -गिर्द घूमती इस कहानी में अंतरिक्ष में रहने के अजीबोगरीब अनुभवों, उन हालातों से निपटने की अंतरिक्षयात्रियों के अलहदा अंदाज़ और अंत में उनके उपर आई एक मुसीबत और उस त्रासदी से बचकर धरती पर सकुशल वापस लौटने को बहुत ही रोमांचक ढंग से दिखाया गया है।आसान नहीं होता, धरती से अंतरिक्ष तक  २००-३००मील का सफर!  कभी बर्फ़ से भी ज्यादा ठंढा और कभी सूर्य की गर्मी पाकर जरूरत से ज्यादा तापमान इसे अनुभव करने का बेहतरीन ज़रिया है यह फ़िल्म। चाहे वह भारी-भरकम स्पेस सूट में लिपटे, ऑक्सीजन सिलिंडर पीठ पर लटकाये या किसी विशेष यंत्र की सहायता से आपस में बातें करते या फिर  हवा में तैरते और समरसॉल्ट करते अंतरिक्ष यात्रियों का दृश्य हो। वैज्ञानिकों का  दल अपने आप को किसी चेन या रस्सी से स्पेस स्टेशन से बाँध अपने काम में धैर्यपूर्वक जुड़ा है और धरती पर बैठे मिशन कण्ट्रोल से निरंतर संपर्क में है. वहां के असामान्य परिस्थितियों को सामान्य बनाने की कोशिश में लगे मिशन के एक सदस्य मैट कोवालास्की की बातों और कहानियों से शुरू होती है फिल्म।
हलके -फुलके माहौल में बेचैनी तब आती है जब मिशन के सदस्य डॉ स्टोन और मैट क्वालास्की को पता चलता है कि मलबे के रूप में आफ़त उनकी तरफ बढ़ती आ रही है।रूस द्वारा अपनी ही उपग्रह को मार गिराने केबाद उसी कक्षा में उपस्थित कई उपग्रहों के टूटने-बिखरने और एक झटके में सब कुछ तहश -नहश का भयानक दृश्य! मात्र ९० मिनट का समय,कम होता ईंधन और ऑक्सीजन का स्तर और जल्द -से -जल्द एक सुरक्षित स्पेसक्राफ्ट तक पहुँच पाने जैसे दवाब अंतरिक्षकर्मियों के साथ-साथ दर्शक भी झेलने से नहीं बच पाते। अंतरिक्ष में फ्री फॉल के दृश्य,तेजी से चलती हुई साँसों की आवाज और मलबे के वापिस टकराने का भय रोंगटे खड़े करता है। और, इन भयानक दृश्यों के बीच अंतरिक्ष से नीले गोले को देखना सुकून देती है! अँधेरे के समय बिजली से जगमगाती धरती का दृश्य या फिर सूरज की किरणों को आत्मसात करती धरती!
और हाँ, यहाँ उल्लेखनीय है कि हॉलीवुड की साइंस फिक्शन फिल्म 'ग्रेविटी' का बजट हमारे मंगल अभियान से भी ज़्यादा है!इस वजह से इस फ़िल्म को कड़ी आलोचनाओं का भी शिकार होना पड़ा।
खैर, कई जानकारियों से भरी इस फिल्म के बारे में कहा जाता है कि कुछेक दृश्यों को छोड़ यह फिल्म काफी हद तक सत्यता के करीब है। फिल्म देखने के बाद यह बात दिमाग  में आती है कि अंतरिक्ष में बड़े पैमाने पर भेजे जाने वाले सैटेलाइट, संचार उपग्रह, पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह, प्रायोगिक उपग्रह, नौसैनिक उपग्रह, वैज्ञानिक शोध और खोज के उपग्रह, शैक्षणिक उपग्रह और अन्य छोटे-छोटे उपग्रह रिसर्च इंजन, रॉकेट और अंतरिक्षयान जब कभी  हादसे के शिकार होते हैं या जो फिर इस्तेमाल के लायक नहीं बचे हैं, वो अंतरिक्ष यान, उपग्रहों और स्पेस स्टेशनों के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं।  यक़ीनन दुनिया भर के देशों की बढ़ती अंतरिक्ष गतिविधियों की वजह से अंतरिक्ष में मलबा बढ़ता ही जा रहा है।  विशेष रूप से शुरुआत में जो प्रक्षेपण किए थे उसमें अंतरिक्ष के कचरे पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया था।  हालांकि अंतरिक्ष में मौजूद मलबे को इकट्ठा करने के लिए कुछ प्रयोग ज़रूर किये गए हैं जैसे नेट या हार्पुन लगाकर किसी तरह से मलबे को खींच कर उन्हें डीऑर्बिट करना और वापस धरती पर लाकर जला दिया जाना।उदाहरणार्थ, नासा का अन्तरिक्ष मलबा सेंसर (Nasa’s Space Debris Sensor), रिमूव डेबरी उपग्रह, डी-ऑर्बिट मिशन (Deorbit mission) आदि। लेकिन यह कितने कारगर हैं या इस पर कितना खर्च आएगा अभी उस पर पूरी जानकारी नहीं है।इन सवालों के बीच की क्या अन्तरिक्ष में भेजे गए उपग्रहों का मलबा हमें पाषाण युग में पहुंचा सकता है, सभी देशों को मिलकर तत्परता से इस दिशा में काम किये जाने को निहायत जरूरी बनाता है।

Tuesday 25 February 2020

नेशनल साइंस डे



अमूमन 'विज्ञान' शब्द सुनते ही कईयों के ज़ेहन में आता है, या तो कठिन-सा कुछ या फिर उबाऊ सी बात। पर, इस बात से सहमति भी होती है कि हमारे रोजमर्रा की ज़िन्दगी के अधिकांश पहलूओं से जुड़ा है विज्ञान। छोटी सी सूई से लेकर हवाई जहाज तक या फिर बिजली, मोबाइल, कार से लेकर अंतरिक्ष तक! निसंदेह कई गुत्थियों के सुलझाने, हमारे जीवन शैली में बदलाव लाने और भविष्य में प्रकृति के कई अन्य रहस्यों को ढूंढने में इंसानों को हौसला प्रदान करने में विज्ञान की अहम् भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।
फिर, विज्ञान से इतनी दूरी क्यों? क्यों न आम जान खासकर बच्चों को इसके और करीब लाने का प्रयत्न किया जाये, विज्ञान से परिचय कराया जाए, विज्ञान को और अधिक लोकप्रिय बनाया जाये! इसी आशय के साथ भारत में प्रत्येक वर्ष २८ फरवरी को नेशनल साइंस डे मनाया जाता है। सन १९८७ से शुरू हुई इस परंपरा को विज्ञान से जुड़े लोग या फिर विज्ञान में रूचि रखने वाले उत्सव की तरह मनाते हैं। इस दिन वैज्ञानिक संस्थानों, प्रयोगशालाओं, स्कूल- कॉलेजों तथा प्रशिक्षण संस्थानों में वैज्ञानिक गतिविधियों से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन आम लोगों को विज्ञान के हमारे जीवन में अहमियत से अवगत कराने और विज्ञान के प्रति आकर्षित करने, विद्यार्थियों को विज्ञान के क्षेत्र में नए प्रयोगों के लिए प्रेरित करने तथा विज्ञान एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों के प्रति सजग बनाने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना और देश में विज्ञान के निरंतर उन्नति की दिशा में काम करने का संकल्प लेना ऐसे कार्यक्रमों का मूल उद्देश्य है।
ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस कार्यक्रम से जोड़ पाने के उद्देश्य से २८ फरवरी (शुक्रवार) की जगह गत रविवार को ऐसा ही एक आयोजन टीआईएफआर कोलाबा मुंबई कैंपस में आयोजित किया गया। एक बेहतरीन मौका, वहां के वैज्ञानिकों के सानिध्य में विज्ञान से सम्बंधित कुछ सिद्धांतों को समझना और उनके द्वारा किये जा रहे नवीनतम अनुसंधानों के बारे में जानकारी हासिल करना।कंजरवेशन ऑफ़ एंगुलर मोमेंटम (कोणीय संवेग का संरक्षण का नियम) जैसे सिद्धांत को एक साइकिल के पहिये के साथ साबित करने या फिर कॉरिऑलिस प्रभाव (वस्तुतः पृथ्वी के विभिन्न अक्षांशों में परिधि का आकार तथा केंद्र से दूरी के कारण पृथ्वी की घूर्णन गति भिन्न भिन्न होती है। इस गति-भिन्नता के कारण कोई भी गतिमान वस्तु जो एक अक्षांश से दूसरे अक्षांश की ओर गतिमान होती है, उस पर यह बल कार्य करने लगता है। कोरिऑलिस बल के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में वायु की गति की दिशा के दाएं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में गति की दिशा के बाईं ओर बल लगता है) को सरल अंदाज में दर्शकों को बताने के प्रयास को लोगों ने खूब सराहा।
वैज्ञानिक अभिरुचि के प्रसार के लिए वैज्ञानिकों और आम लोगों के बीच की दूरियों को कम किया जाना निहायत जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि वैज्ञानिक लोगों के करीब जाएँ और उनके साथ संवाद करें, उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करें। यही प्रयास उस दिन कैंपस में जगह- जगह लगे टेंटों में बने अस्थायी रूप से बनाये गए प्रयोगशालाओं में साफ़ दिखाई दे रहा था। उत्साही बच्चे-बड़ों को छोटे छोटे प्रयोगों से विषय की बारीकियों को धैर्य के साथ समझाते वालंटियर्स और वालंटियर्स के काले टीशर्ट पर छपी सर सी वी रमण द्वारा कही गयी एक प्रसिद्ध पंक्ति "Ask the right questions, and nature will open the doors to her secrets, दर्शकों को सवाल करने को प्रोत्साहित करते!
कहीं लार्वा के बर्तावों को समझा जा रहा है, कहीं वेदर मशीन के बारे में बताया जा रहा है, कहीं लिक्विड नाइट्रोजन के साथ किये जा रहे अजीबो-गरीब प्रयोग दिखाए जा रहे हैं, कहीं लाइन फॉलोइंग रोबोट को बनाने सम्बन्धी निर्देश दिए जा रहे हैं, या फिर आर्डुइनो की सहायता से कुछ गेम्स को बनाने की तकनीक बताई जा रही है. अपनी रूचि के हिसाब से विषय चुनने की पूरी आज़ादी। कहीं पत्थरों के बारे में जानकारी दी जा रही है और कहीं गणित से सम्बंधित पज़ल्स को हल करने की चुनौती है! आर्कमेडियन सॉलिड्स, धरती के भिन्न- भिन्न परतों, सूर्य की संरचना इत्यादि के बारे में बताते रंग-बिरंगे पोस्टर्स हमें आकर्षित कर रहे हैं और साथ में हैं विस्तार से समझाने के लिए आतुर वालंटियर्स..
इसके अलावा कई ज्ञानवर्धक व्याख्यानों को सुनने और लैब विजिट का अवसर भी दर्शकों को दिया गया।अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी और मराठी में भी व्याख्यानों का आयोजन प्रशंषनीय है। इतना ही नहीं, दर्शकों को किसी भी प्रयोग को समझने वक्त भी भाषा को चुनने का अवसर दिया जा रहा था।
उल्लेखनीय है, भारतीय वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी वी रमण ने 29 फरवरी, 1928 को रमन प्रभाव (निर्जीव वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने सम्बन्धी) खोज की घोषणा की थी और इस महत्वपूर्ण दिन की याद में २८ फरवरी को भारत में ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ घोषित किया गया है।

Sunday 16 February 2020

नेशनल म्यूजियम ऑफ़ इंडियन सिनेमा


 संग्रहालयों के बारे में तो हम सब जानते हैं। हाँ, वही जगह जहाँ पुरानी वस्तुएं जैसे जीवाश्म, युद्ध में प्रयोग में लिए जाने वाले हथियार या अन्य सामग्रियाँ, गहने, कंकाल, ममी अथवा पुराने सिक्के, बर्तनों, चित्रोँ  आदि  को संजो कर रखा जाता है ताकि आज हम और आगे आने वाली पीढ़ियां पूर्वजों के रहन-सहन के तरीकों और आदतों में हुए बदलावों को देख और समझ सकें।  उदहारण के तौर पर दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय, कोलकाता का भारतीय संग्रहालय, मुंबई का प्रिंस ऑफ़ वेल्स संग्रहालय एवं  हैदराबाद स्थित सालार जंग संग्रहालय, जहाँ प्रदर्शित तमाम तरह की वस्तुओं द्वारा हमारे प्राचीन इतिहास की विस्तृत झलक मिलती है

चलो, अब बात करते हैं, इसी सूची में अभी हाल ही में शामिल हुए 'नेशनल म्यूजियम ऑफ इंडियन सिनेमा' की। फ़िल्म-निर्माण के मुख्य केंद्र 'मुंबई' में भारतीय सिनेमा के एक सदी पुराने इतिहास को समेटे इस संग्रहालय का उद्घाटन गत वर्ष १९ जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया दक्षिणी मुंबई में अवस्थित 'गुलशन महल ' नामक एक ऐतिहासिक इमारत को इस संग्रहालय में परिवर्तित किया गया है कई नई -पुरानी फिल्मों और उसके निर्माण से जुड़ी तकनीकों और विभिन्न कलाकृतियों को संजोये इस संग्रहालय में भारतीय सिनेमा से जुड़े ढेरों जानकारियाँ दर्शकों को मिलती है सन १८९६ में लुमियर ब्रदर्स की ६  शॉर्ट फ़िल्मों का मुंबई के वॉटसन होटल में प्रीमियर द्वारा भारत का सिनेमा से परिचय की कहानी हो या  फिर भारतीय फ़िल्म उद्योग के पितामह दादा साहेब फाल्के द्वारा बनायी गयी पहली मूक फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र के साथ भारत में फ़िल्म निर्माण का आगाज़ की बात या फिर इम्पीरियल फिल्म कंपनी द्वारा सन १९३१ में बनी पहली साउंड फिल्म 'आलम आरा' की दास्तान हो, फ़िल्मी दुनिया से जुड़े ये किस्से फ़िल्मों के बारे में हमारी समझ को बढ़ाने में मददग़ार हैं बाबू राव पेंटर द्वारा बनाये गए  'मदर इंडिया' फिल्म का पोस्टर, हिंदी एवं उर्दू में हाथों से लिखे फ़िल्मों के गाने या फिर आरंभिक फ़िल्मों जैसे राजा हरिश्चंद्र और कालिया मर्दन  के  कुछ दृश्यों और ऐसे ही कई अन्य दस्तावेजों को देख पाना रोचक है समय -समय पर फिल्मकारों द्वारा प्रयोग की जाने वाली वाली तकनीकों में हुए बदलावों को भी देखा-समझा जा सकता है उदाहरणार्थ एक समय फ़िल्म निर्माण के लिए अति उपयोगी प्रैक्ज़िनोस्कोप, ज़ोएट्रोप और म्यूटोस्कोप जैसे उपकरण इस संग्रहालय में दर्शनार्थ रखे गये हैं 

महात्मा गांधी की ज़िन्दगी का सिनेमा पर प्रभाव को बताने के दृष्टिकोण से इस अत्याधुनिक संग्रहालय में 'गाँधी और सिनेमा' नाम का एक पृथक हॉल बनाया गया है इसी तरह एक अन्य हॉल चिल्ड्रेन्स फिल्म स्टूडियो है, जो कि बच्चों पर केंद्रित है. साथ ही, भारतीय सिनेमा के १०० वर्षों से अधिक की यात्रा को एक सूत्र में पिरो कर एक कहानी की भांति दर्शकों के समक्ष पेश किया गया है । इस पूरी गाथा को दिखाने के लिये दृश्य, शिल्प, ग्राफिक्स और मल्टीमीडिया की सहायता ली गयी है यक़ीनन यहाँ फिल्म निर्माण के पीछे के विज्ञान, कला और तकनीक के बारे में अहम् जानकारी मिलती है। संक्षेप में, मूक फिल्मों से लेकर पहली बोलती फिल्म, रंगीन फिल्मों के निर्माण और फिर लार्ज फॉर्मेट वाली फिल्मों से लेकर ३ डी फिल्मों तक के सफ़र का अनुभव कराता यह संग्रहालय  निसंकोच फ़िल्म से जुड़े लोगों, विद्यार्थियों और सिनेप्रेमियों के लिए अनोखा उपहार है  



Tuesday 11 February 2020

इंटरनेशनल डे ऑफ़ वीमेन एंड गर्ल्स इन साइंस



कहते हैं इंसान मरने के बाद तारा बन जाता है। इसका तो पता नहीं, पर कई तारे इंसानों के नाम से जरूर जाने जाते हैं। ऐसा ही एक उदहारण है, सेक्सटन तारामंडल में अवस्थित एक पीला -सफ़ेद तारा 'बिभा', जिसका नामकरण भारत की एक प्रसिद्ध महिला भौतिकशास्त्री बिभा चौधरी( १९१३-१९९१) के नाम पर किया गया है।

चाय एंड व्हाई के पृथ्वी थिएटर में ५ फरवरी के सत्र के दौरान मुख्य वक्ता एवं वैज्ञानिक डॉ सुनील गुप्ता ने कॉस्मिक किरणों और म्युऑन टेलिस्कोप के बारे में बताते हुए बिभा चौधरी का ज़िक्र किया और ७० के दशक में कॉस्मिक किरणों के क्षेत्र में काम करते हुए दार्जीलिंग में हुई उनसे अपनी मुलाकात के बारे में बताते हुए कहा, "शी वाज शार्ट बट अ वैरी टफ लेडी"। उनके बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ गई. इंटरनेट खंगालने पर कुछ जानकारियां हासिल हुईं। आज भी जहाँ विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति उँगलियों पे गिनी जा सकती हैं, आज से करीबन एक सौ साल पूर्व उनके द्वारा इस क्षेत्र का चुनाव किया जाना और एक मुकाम हासिल करना निश्चित रूप से महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है। परन्तु, भौतिक शास्त्र की कई महान उपलब्धियों से जुड़े होने के वाबजूद इन्हें कम लोग ही जानते हैं, वर्षों तक यह सितारा गुमनामी के अँधेरे में ही खोया रहा है। यहाँ तक कि इंडियन अकादमी ऑफ़ साइंसेज द्वारा प्रकाशित किताब लीलावती डॉटर्स : वीमेन साइंटिस्ट्स ऑफ़ इंडिया में वर्णित ९८ महिला वैज्ञानिकों की जीवनी पर आधारित लेख में उनका नाम तक भी शामिल नहीं किया गया। अभी हाल ही में दो प्रमुख विज्ञान इतिहासकारों, जर्मनी के ओल्डेनबर्ग विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्रफेसर डॉ. राजिंदर सिंह और कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट के भौतिकी के पूर्व प्रोफेसर सुप्रकाश सी. रॉय द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ए ज्वैल अनअर्थेडः बिभा चौधरी' द्वारा हम उनके जीवन और विशेष रूप से विज्ञान के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदानों के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हासिल कर पाए हैं। इस किताब के हिसाब से वो समकालीन वैज्ञानिकों से किसी भी मामले में कम नहीं थी. साइंटिफिक जर्नल नेचर एवं प्रसीडिंग ऑफ़ द फिजिकल सोसाइटी ऑफ़ लंदन में छपे उनके पेपर को देखकर इस बात की पुष्टि होती है।
कलकत्ता विश्वविद्यालय से सन 1934-36 में भौतिकी में एमएससी की डिग्री लेकर वह उसी विभाग में प्रोफेसर डॉ देबेन्द्र मोहन बोस की देखरेख में शोध करने के लिए जुड़ गईं। उल्लेखनीय है कि एमएससी (भौतिकी) के 24 छात्रों के बैच में वह एकमात्र छात्रा थीं।
1938 और 1942 के बीच डी.एम. बोस के साथ मिलकर बिभा चौधरी ने फोटोग्राफिक प्लेटों का उपयोग करके मेसॉन की खोज पर काम किया और इससे संबंधित तीन शोध पत्र नेचर पत्रिका में भी प्रकाशित किए। दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संवेदनशील इमल्शन प्लेटों की कमी के चलते वह आगे काम जारी नहीं रख सकीं और वह पीएचडी के लिए मैनचेस्टर विश्वविद्यालय चली गईं। वर्ष 1945 में वह पी.एम.एस. ब्लैकेट की ब्रह्मांडीय किरणों की शोध प्रयोगशाला से भी जुड़ीं। उनके जुड़ने के करीब तीन साल बाद ब्लैकेट को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। उनकी डॉक्टरेट थीसिस का विषय 'एक्सटेंसिव एयर शॉवर्स एसोसिएटेड विद पेनिट्रेटिंग पार्टिकल्स' था जो कि उस समय पार्टिकल फिजिक्स में हो रहे खोजों में से एक महत्पूर्ण विषय था। गौरतलब है, इसी तकनीक (फोटोग्राफिक प्लेट का उपयोग) के सहारे पाइआन, मेसॉन किरणों की खोज करने के लिए वैज्ञानिक सी. एफ. पॉवेल को १९५० में नोबेल पुरस्कार दिया गया और पॉवेल ने इसके लिए भौतिकी प्रोफेसर बोस एवं बिभा चौधरी के योगदान को स्वीकारा भी था।
उस समय डॉ होमी जहांगीर भाभा ब्रह्मांडीय किरणों के क्षेत्र में ही काम कर रहे थे और वही वर्ष 1949 में बिभा चौधरी को टीआईएफआर में लेकर आये। वह टीआईएफआर से जुड़ने वाली पहली महिला शोधकर्ता थीं, जो 1957 तक वहां रहीं। एम.जी.के. मेनन और यश पाल टीआईएफआर में उनके समकालीन थे। उन्होंने टीआईएफआर के सहयोगियों के साथ वर्ष 1955 में इटली में पीसा में आयोजित मूल अणुओं पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भी भाग लिया था।
चौधरी 1960 की शुरुआत से ही कोलार गोल्ड फील्ड (केजीएफ) में प्रोटॉन क्षय परीक्षण परियोजना में भी शामिल थीं. भौतिक अनुसन्धान प्रयोगशाला (पीआरएल) जाने के बाद उन्होंने राजस्थान के माउंट आबू में एक और प्रयोग का प्रस्ताव दिया। वह व्यापक वायु बौछार से जुड़ी रेडियो आवृत्ति के उत्सर्जन का अध्ययन करना चाहती थीं। पुस्तक में बताया गया है,पीआरएल के तत्कालीन निदेशक साराभाई की मृत्यु के बाद शोध कार्यक्रम की योजना सफल नहीं हो पायी। दुर्भाग्यवश उनकी योजनाए सफल नहीं हुयी। इसके बाद, उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का निर्णय ले लिया और में अकादमिक और शोध कार्य करने के लिए कोलकाता वापिस लौट गईं, जहाँ मृत्युपर्यन्त वह अपने रिसर्च में ही लगी रहीं। उनका अंतिम शोध पत्र सह-लेखक के रूप में वर्ष 1990 में उनकी मृत्यु से एक साल पहले इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स में प्रकाशित किया गया।
उच्च दर्ज़े के काम के वाबजूद उन्हें अन्य प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के श्रेणी में न रखे जाने की क्या वजह रही? उन्हें भारत की तीन प्रमुख अकादमियों से न तो कोई फेलोशिप मिली और न ही उन्हें किसी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बिभा चौधरी पर लिखी गई इस किताब में इन वजहों को भी टटोलने का प्रयास किया गया है, महिला वैज्ञानिकों के प्रति अन्य वैज्ञानिकों के नज़रिये और इस क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं से जुडी चुनौतियों को भी समझने की कोशिश की गयी है।
आज भी विज्ञान का क्षेत्र महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता।जहाँ लड़कों को बचपन से ही इस क्षेत्र में जाने को प्रेरित किया जाता है वहीँ लड़कियों को लेकर इससे बिलकुल ही विपरीत मानसिकता होती है.।परिणामतः इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बहुत ही कम है। सरकारी आकंड़ों के अनुसार अनुसंधान और विकास गतिविधियों में कार्यरत कुल 2.82 लाख लोगों में से 14 प्रतिशत महिलाएं हैं। कुछ वर्ष पहले तक इंडियन नेशनल साइंस अकादमी के महिला फेलो की संख्या कुल सदस्यों की ५ प्रतिशत ही थी। अगर पुरस्कारों की बात करें तब देखते हैं, भारत सरकार द्वारा सं १९५८ से भारतीय वैज्ञानिकों को दिए जाने वाले शांति स्वरुप भटनागर पुरस्कार के ५५९ पुरस्कारों में से केवल १८ (३%) महिलाओं के हिस्से आये हैं। समस्या यह है कि जो महिलायें विज्ञान के क्षेत्र को करियर के रूप में चुनती भी हैं, उन्हें कई अवरोधों का सामना करना पड़ता है. महिला होने के नाते पुरुषों के मुकाबले कमतर समझा जाना, भूमिका का सीमित किया जाना, निम्न पदों पर नियुक्ति, घरेलू जिम्मेवारियों और रिसर्च के लिए लैब में कई घंटों तक लगे रहने की जरूत के मध्य सामंजस्य, कभी अनजाने में अथवा कभी जान बूझकर किया जाने वाला भेदभाव जैसी कई चुनौतियाँ उनके पिछड़ने का कारण बनती हैं. पर सुखद यह है कि कई महिलाओं ने इन सब अवरोधों को पार कर अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है. अगर भारत में ही देखें, चंद्रयान २ की मिशन डायरेक्टर रितू करिधल और प्रोजेक्ट डायरेक्टर एम. वनीता और इनफ़ोसिस साइंस फाउंडेशन द्वारा पुरस्कृत दो महिला वैज्ञानिक सुनीता सरावगी और मंजुला रेड्डी जैसे कुछ उदाहरण महिलाओं के लिए अनुकरणीय हैं।
हर वर्ष ११ फरवरी को हर वर्ष 'इंटरनेशनल डे ऑफ़ वीमेन एंड गर्ल्स इन साइंस' मनाया जाता है और आशा है कि अगले कुछ वर्षों में स्टेम शिक्षा (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथेमेटिक्स) में महिलाओं की बेहतर भागीदारी का स्वपन पूरा हो सकेगा।

Friday 7 February 2020

ज्ञान-विज्ञान और जीवन-दर्शन से सजा व्याख्यान

गतांक  से आगे 
(पिछली पोस्ट पर जाने के लिए यहाँ क्लिक करें)

डॉ वेंकी रामकृष्णन को सुनने आये विद्यार्थियों, वैज्ञानिकों और आम  लोगों की भीड़ देखकर एक सुखद अहसास हुआ कि केवल राजनीतिज्ञ या बॉलीवुड के नायक-नायिका ही भीड़ खींचने में समर्थ नहीं! तक़रीबन महीने भर पहले से ही लोगों ने उन्हें देखने- सुनने के लिए रजिस्ट्रेशन करवा रखा था।विषय निश्चित रूप से उतना सरल नहीं था, थोड़ी बहुत समझ इस क्षेत्र की जरूरी थी। हालांकि अपने भाषण को यथासंभव सरल रख और साथ ही राइबोसोम के समानान्तर अपने जीवन से सम्बंधित खट्टे -मीठे अनुभवों आदि का समायोजन कर श्रोताओं को अपने भाषण से जुड़े रहने को मजबूर रखा। विज्ञान और रिसर्च जगत से जुड़े कई पहलूओं जिससे आम आदमी का वास्ता न के बराबर है या फिर इस क्षेत्र में कैरियर बनाने के उत्सुक लोगों के लिए कई महत्पूर्ण जानकीरियां इस भाषण के दौरान मिलीं।

डॉ वेंकी रामकृष्णन की जिंदगी के कुछ महत्वपूर्ण किस्से, राइबोसोम के अनुसंधान और पुरस्कार की संक्षिप्त चर्चा अपने अनूठे अंदाज में कर टीआईएफआर के निदेशक और भारत के जाने-माने स्ट्रिंग थियोरिस्ट डॉ संदीप त्रिवेदी ने श्रोताओं से उनका परिचय कराने की जिम्मेवारी निभाई। साथ ही, उन्होंने मजाकिया अंदाज में यह कहकर कि "शायद कंडेंस्ड मैटर फिजिक्स इतना कठिन हो गया कि  डॉ वेंकी रामकृष्णन इस क्षेत्र को  छोड़ राइबोसोम के अनुसंधान में लग गए," उनके भौतिकी को छोड़ जीव विज्ञान के क्षेत्र में मुड़ने के कारण बताने को बाध्य किया। ज्ञात्वय है, डॉ वेंकी रामकृष्णन ने पी एच डी भौतिकी में की, रिसर्च के लिए उन्होंने जीव विज्ञान विषय को आधार बनाया और नोबेल प्राइज उन्हें रसायन शास्त्र विषय में मिला! निश्चित रूप से यह अजीब-सा संयोग है।और, अपने भाषण के दौरान डॉ वेंकी रामकृष्णन ने इस पर भी चर्चा की।  सबसे पहले, उन्होंने बेहिचक स्वीकार किया उन्हें  फेल्ड फिजिसिस्ट या असफल भौतिकशास्त्री की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
आगे विस्तार से उन्होंने बताया कि उनके भौतिकी छोड़ने के पीछे यह कारण भी महत्वपूर्ण रहा कि  ७० के दशक में भौतिकी के क्षेत्र में कोई खास उपलब्धि नहीं हो रही थी जबकि नेचर, साइंटिफिक अमेरिकन आदि जर्नल्स के लगभग  हर अंक में बायोलॉजी में हो रहे नए नयी खोजों पर लेख छप रहे थे। उन्हें लगा कि यदि वे भौतिकी विषय के साथ बने रहते तो जिंदगी भर उबाऊ गणनानों में ही लगे रहेंगे। जैसे, उन्होंने बताया कि उन दिनों हाइड्रोजन सुपरकंडक्टिविटी की खोज हुई थी और अभी ४० सालों बाद भी कुछ नया हासिल नहीं हो सका है। साथ ही, xkcd.com में छपे एक चर्चित कार्टून का जिक्र कर अलग -अलग विषयों के जानकारों द्वारा अपने-अपने विषय को दूसरे विषयों से सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की प्रवृति पर तंज भी कसा और चुटीले अंदाज़ में यह कह कर कि  "स्ट्रिंग थियोरिस्ट वना टू बी मैथेमैटिशियन ", इस क्षेत्र की एक विशेष प्रवृति को उजागर किया।
उन्होंने बड़ी ईमानदारी से स्वीकार किया कि भौतिकशास्त्र में पीएचडी की पढाई के दौरान उनकी एक ही उपलब्धि रही, उनकी अपनी भावी पत्नी से मुलाकात और शादी!

अपने इस निर्णय  के तहत कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में बायोलॉजी पढ़ने तो गए पर राह आसान नहीं थी।  नया विषय, नए नये शब्द समझने की चुनातियाँ थीं, जैसे लैम्ब्डा (Lambda ) जहाँ भौतिकी में तरंगदैर्ध्य है वहीँ जीव विज्ञान में विषाणु! उन्ही दिनों साइंटिफिक अमेरिकन में छपे  राइबोसोम के बारे में आलेख पढ़कर उसकी तरफ आकृष्ट हुए और इस क्षेत्र में ही रिसर्च करने में लग गए.  इस क्रम में, उन्हें बेहतर अवसर को देखते हुए  कई दफ़ा एक स्थान से दूसरे स्थान बसने का निर्णय लेना पड़ा. उन्होंने अपनी पत्नी से मिले हर कदम और निर्णय में सहयोग की भी बात कही,  चाहे अपने ६ महीने के बच्चे के साथ USA से लंदन जाकर बसने की बात हो या फिर आधी तनख्वाह पर किसी रिसर्च में जुड़ने पर हामी भरने की। कई  महान वैज्ञानिकों के साथ काम करने अनुभवों को भी साझा किया। राइबोसोम के इतिहास को बताते हुए प्रसिद्ध बायोलॉजिस्ट फ्रांसिस क्रीक का एक वीडियो भी साझा किया जिसमे वे राइबोसोम को लेकर कुछ भविष्यवाणियां करते दिख रहे थे. उनकी कई अवधारणाएं सही भी हुयी और कई गलत भी। रिसर्च के दिनों से नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने तक अन्य कई वैज्ञानिकों, विद्यार्थियों से मिले सहयोग की भी चर्चा की और यह भी कहा कि विज्ञान का क्षेत्र बहुआयामी है, अकेले किसी के द्वारा कोई भी खोज कर पाना असंभव है।और, यह भी सही है कि श्रेय गिने-चुने लोगों को ही मिल पाता है। अन्य क्षेत्रों की तरह विज्ञान का क्षेत्र भी  आपसी प्रतिस्पर्धा जैसी बुराइयों से अछूता नहीं। राइबोसोम की संरचना के रिसर्च के क्षेत्र में काम में लगे ४ लैब्स के मध्य आपसी प्रतिस्पर्धा का भी जिक्र किया। पर यह भी कहा, जहाँ प्रतिस्पर्धा थी वहीँ काम करने की प्रेरणा भी।
स्ट्रक्चरल बायोलॉजिस्ट डॉ  रामकृष्णन, प्राथमिक शिक्षण के स्तर  से ही का पुरस्कारों का लालच देने के चलन से खुश नहीं दिखे। उनके अनुसार इससे अधिक महत्व चीजों को समझने और कुछ नया ढूंढने से मिलने वाले आनंद पर दिया जाना चाहिए।

इसी तर्ज़ पर, वैज्ञानिकों के  भी 'प्री नोबेलाइटिस 'बीमारी सरीखा प्रवृति पर भी ध्यान आकृष्ट कराया. नोबेल पुरस्कार की ललक उन्हें मानसकि व्यग्रता से ग्रस्त करती है। इसके अलावा कई वैज्ञानिक पुरस्कार मिलने के उपरांत 'पोस्ट नोबेलाइटिस' के भी शिकार हो जाते हैं।पुरस्कार मिलने के उपरांत कई अन्य असम्बद्ध विषयों जैसे क्लाइमेट चेंज पर अपनी  राय देने से नहीं चुकते। इस बात को उन्होंने कई बार दोहराया कि विजेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सम्मान उन्हें एक विशेष खोज के लिए  मिला है न कि उनके विशेष होने के लिए।

इन बातों के साथ-साथ कई ग्राफिक्स के माध्यम से उन्होंने राइबोसोम द्वारा डीएनए के रूप में लिखे आनुवंशिक कोड को समझ कर उसे न्यूक्लिक एसिड में परिवर्तित होने (ट्रांसलेशन यानी अनुवाद क्रिया) की प्रक्रिया को समझाया। साथ ही अलग-अलग अमीनों एसिड का एक- दूसरे से जुड़ कर पॉलीपेप्टाइड कड़ियों के निर्माण और m RNAकी सहायता से उन्हें सही-सही क्रमबद्ध करने की प्रक्रिया को भी बताया। राइबोसोम के दो उपभागों 30s और ७०s को भी संक्षेप में समझाया। अपने पूरे भाषण के दौरान वे अपने आप को एक महान वैज्ञानिक साबित करने को आतुर कतई नहीं दिखे जो उन्हें अन्य कई वैज्ञानिकों से अलग श्रेणी में खड़ा करता है।
इतना ही नहीं, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर भावी पीढ़ी के लिए कुछ जीवन-दर्शन भी साझा किया। जैसे, विकल्पों को खुले रखिये, अपने ही जिंदगी का उदहारण उन्होंने पेश किया कि कैसे भौतिकी को छोड़ वे जीव विज्ञान पढ़ने पहुंचे । दूसरों से मदद माँगने से बिलकुल न कतराएं,  कई बड़े बड़े वैज्ञानिकों द्वारा बिना हिचकिचाए आसान -से-आसान सवाल पूछते देखने का अपने अनुभव का यहाँ जिक्र किया।
तीसरा, शायद ही कोई हो जो इम्पोस्टर सिंड्रोम (अपने आपको अन्य से कमतर समझना)का शिकार नहीं होता है, खासकर अगर कोई समूह में बाहरी हैं, उस की भाषा, रहन सहन नागरिकता दूसरों से भिन्न है । इससे न  घबराने की सलाह दी।
इसके अलावा उन्होंने सफलता के लिए आवश्यक, जर्मन वैज्ञानिक पॉल एर्लिच द्वारा अक्सर कहे जाने वाले ४G 's  का उल्लेख खास तौर पर किया। ये हैं, GELD(धन ), GESCHICK(कौशल ) GEDULD(जुनून ), और GLUCK(भाग्य )।








Wednesday 5 February 2020

कुछ विज्ञान की बातें: राइबोसोम १



कोशिका, जीन्स, डी एन ए , प्रोटीन, एमिनो एसिड, राइबोसोम इत्यादि शब्दों से विज्ञान से सीधे-सीधे वास्ता न रखने वाले भी अनजान नहीं हैं। इस क्षेत्र में हुई कोई भी खोज़ हमारी ज़िन्दगी को किस कदर प्रभावित कर सकती है, इसका अंदाज़ा यक़ीनन सबको ही है। ऐसा ही एक शब्द 'राइबोसोम ' अभी कुछ वर्षों से चर्चा में है। कोशिकाओं के अंदर प्रोटीन के निर्माण करने वाले राइबोसोम के बारे में हाल के वर्षों में कुछ जानकारियाँ  हासिल हुई हैं । मानव शरीर या यूँ कहें कि किसी भी जीव(बैक्टीरिया, आर्किया और यूकैरियट्स) की आंतरिक संरचना और कार्यप्रणाली को समझ पाने में यह बड़ी सफलता है।
थोड़ा सरल ढंग से इसे यूँ समझा जा सकता है, जैसा कि हमें पता है, प्रोटीन हमारे शरीर के बिल्डिंग बॉक्स या निर्माण घटक है और ये प्रोटीन शरीर में मौजूद २० तरह के एमिनो एसिड के आपसी मेल से बने होते हैं। उदहारण के तौर पर, प्रोटीन को एक वाक्य की तरह समझा जा सकता है और एमिनो एसिड को उस वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की तरह। अब सवाल ये है की ये प्रोटीन बनते कहाँ और कैसे हैं? यहाँ डीएनए की भूमिका समझ में आती है। हमारे शरीर की हर कोशिका में मौजूद DNA में शरीर निर्माण सम्बन्धी निर्देश समाहित हैं। इन निर्देशों के मुताबिक ही, हर एक प्राणी के उसकी जरूरतों के हिसाब से शरीर के अंदर प्रोटीन बनने की अनवरत प्रक्रिया चलती रहती है। भिन्न -भिन्न आकार के और और अलग अलग कार्यों को अंजाम देने वाले प्रोटीन हमारे शरीर के अंदर निरंतर बनते रहते हैं।और, इन प्रोटीन श्रृंखलाओं का स्वतः ही एक आकार धारण कर लेना एक आश्चर्य से कम नहीं लगता ,कभी स्किन टिश्यू में कोलेजन का, हिमोग्लोबिन का या फिर प्रकाश के बोध के लिए रेटिना के अंदर स्थित रोडोप्सीन पिग्मेंट का इत्यादि। ये महज छोटे-छोटे उदहारण हैं, हजारों की संख्या में भिन्न भिन्न तरह की प्रोटीन श्रृंखलाएं हमारे शरीर का हिस्सा हैं।
यह प्रोटीन संश्लेषण नामक प्रक्रिया (एमिनोएसिड से प्रोटीन का निर्माण ) जहाँ घटित हो रही है, उसे ही हम राइबोसोम के नाम से जानते हैं। आकार में केवल 20 नैनो मीटर बड़े ये राइबोसोम शरीर की हर कोशिका में मौजूद है और निरंतर हमारे शरीर में जीनों की कोड भाषा पढ़कर उसके निर्देशों के अनुसार प्रोटीन निर्माण में जुडी है। .राइबोसोम की खोज १९५० के दशक में रोमानिया के वैज्ञानिक जॉर्ज पेलेड ने की थी, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था। वर्तमान में भी इन अति सूक्ष्म मशीनों पर काफी शोध और अनुसंधान किये जा रहे हैं।
निःसंदेह प्रोटीन बनने की इस प्रक्रिया में कई अन्य तथ्यों का जुड़ाव इसे एक बेहद जटिल प्रक्रिया की श्रेणी में खड़ा करता है, जैसेmRNA या संदेशवाहक RNA, tRNA ट्रांसफर RNA या फिर 30s और 70s इत्यादि। शायद सबको पता भी है, अभी कुछ वर्ष पहले राइबोसोम की संरचना एवं कार्यप्रणाली के बारे में जानकारी के रूप में हमें एक बड़ी उपलधि हासिल हुई और इसी उपलब्धि के लिए सन २००९ में भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ वेंकी रामकृष्णन, इसराइली महिला वैज्ञानिक अदा योनोथ और अमरीका के थॉमस स्टीज़ को संयुक्त रूप से नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। तीनों वैज्ञानिकों ने एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफ़ी तकनीक का उपयोग कर राइबोसोम्ज़ की कई गुनी बड़ी छवि पेश की और त्रि-आयामी चित्रों के ज़रिए दुनिया को समझाया कि किस तरह राइबोसोम अलग-अलग रसायनों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं।यक़ीनन इनकी इस उपलब्धि से भविष्य में और अधिक कारगर प्रतिजैविकों को विकसित करने में मदद मिलेगी। उदाहरणार्थ, आजकल की बहुत-सी एन्टीबायॉटिक दवाईयां  बीमारी पैदा करने वाले बैक्टीरिया के राइबोसोम को निशाना बना कर उन्हें इस तरह बांध देती हैं कि वे अपना काम कर ही नहीं पाते और वे स्वतः खत्म हो जाते हैं।
राइबोसोम के बारे में विस्तार से अभी हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ वेंकी रामकृष्णन द्वारा मुंबई के टीआईएफआर कैंपस स्थित होमी जहांगीर भाभा सभागार में दिए गए व्याख्यान 'माई एडवेंचर्स इन द राइबोसोम्स' में सुनने को मिला। यहाँ बता दें, TNQ द्वारा डिस्टिंगिशड लेक्चर ऑफ़ लाइफ साइंसेज के १०वीं संस्करण के मुख्य वक्ता के रूप में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक डॉ वेंकी रामकृष्णन आमंत्रित किये गए थे और यह  कार्यक्रम भारत के चार शहरों (बैंगलोर, मुंबई, चेन्नई और नयी दिल्ली ) में आयोजित किया गया था.
अगली पोस्ट में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान के बारे में थोड़ा जानेंगे।