Wednesday 5 December 2018

डॉ भाऊ दाजी लाड संग्रहालय, नवरत्न प्रदर्शनी :एक अनोखा अनुभव


भारत की आर्थिक राजधानी है, मुंबई। भारत की सबसे अधिक आबादी वाला यह शहर विभिन्न समाजों और संस्कृतियों के मिश्रण और बहुभाषी तथा बहुआयामी जीवन शैली के लिए भी जाना जाता है। और भारत ही क्या, वैश्विक आर्थिक स्तर पर धाक जमा लेने की वजह से ही सन २००८ में इस महानगर को 'अल्फा वर्ल्ड सिटी' का भी दर्ज़ा मिल गया है।मूल रूप से सात अलग -अलग द्वीपों में बंटा यह नगर पांच शताब्दियों के लम्बे समय में एक विशाल औद्योगिक शहर में परिवर्तित हो गया है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया को थोड़ा और बारीकी से समझने की चाहत अगर आप में है, तब आप रूख कर सकते हैं मुंबई के भायखला स्थित 'डॉ भाऊ  दाजी लाड संग्रहालय' की तरफ। भारत के श्रेष्ठ संग्रहालयों में शामिल इस संग्रहालय में भारतीय इतिहास और विशेषतः १९वीं और २०वीं शताब्दी के मुंबई की जीवन शैली की जानकारी बखूबी मिलती है। इस संग्रहालय की स्थापना सन १८७२ में हुई थी और तब उसे 'विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय' नाम से जाना जाता था परन्तु सन १९७५ में इस संग्रहालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मुंबई के एक प्रमुख चिकित्सक, इतिहासकार और समाज सेवक के नाम पर 'डॉ भाऊ दाजी लाड संग्रहालय' कर दिया गया. यह संग्रहालय वर्षों से मुंबई की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और संभाल कर रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। विशेष रूप से वर्ष २००८ में संग्रहालय के नवीनीकरण के बाद विभिन्न तरह की प्रदर्शनियों और कार्यशालाओं का नियमित आयोजन इस संग्रहालय को आम लोगों के मध्य लोकप्रिय बनाने में मददगार साबित हुआ है और यह कहना गलत नहीं होगा कि यह स्थान मुंबई के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों की सूची में शामिल हो गया है। संग्रहालय ने लगातार अपने संग्रह को बढ़ाने की दिशा में भी काम किया है. गूगल की सहायता से संग्रहालय के वर्चुअल टूर की भी व्यवस्था की गई है।


पैलेडियन डिज़ाइन में बनी यह दोमंजिला इमारत जितनी बाहर से आकर्षित करती है, उतनी ही भव्य अंदर से भी है। चमकते टर्न्सटाइल से होकर एक बड़े हॉल में प्रवेश करते ही दिखाई देते हैं,सुन्दर-से अलंकृत खम्भे, छत पर स्टैंन्सिल से बनी डिज़ाइन और सबसे अहम कांच के बड़े-बड़े डब्बे में बंद कई तरह की खूबसूरत कलाकृतियां मसलन चांदी और मिट्टी के बर्तन, हाथी दांत से बनी कलाकृतियां और उनपर की गई नक्काशी, लाख से बने सामान या फिर पेंटिंग और पुराने हथियार। सीढ़ियों पर लगे रंगीन मिन्टन टाइल्स पर नजर ठिठक ही जाती है और कुछ सीढ़ियां चढ़ते ही सामने दिखाई देती है डॉ भाऊ दाजी लाड जी की एक बड़ी तस्वीर।

बढती जरूरतों और तकनीकी प्रगति के साथ नौकाओं के बदलते स्वरुप, कपड़ा मिलों, विभिन्न आवास परिसरों, पारम्परिक उद्योगों और अलग -अलग वेशभूषाओं की जानकारियाँ देते मॉडल को पहली मंजिल पर देखा जा सकता है. जैसे मुंबई के मालाबार हिल्स स्थित 'टावर ऑफ़ साइलेंस' का संग्रहालय में प्रदर्शित डायोरामा और लिखित विवरण पारसी समुदाय द्वारा अंतिम संस्कार के लिए अपनाने जाने वाली विधि की विस्तृत जानकारी देता है। मुंबई की सात द्वीपों से एक विशाल औद्योगिक शहर में बदलने की कहानी कहते पुराने मानचित्र, तस्वीरें, पांडुलिपियों और दुर्लभ किताबें यहाँ देखी जा सकती हैं। यथा १८वीं शताब्दी में जॉन हेनरी ग्रोस द्वारा वाटरकलर से बनाये गए तत्कालीन शहर के नक़्शे 'प्लान ऑफ़ बॉम्बे' या फिर सिटी ऑफ़ बॉम्बे इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट द्वारा निर्मित वर्ली उपनगर के दो मॉडल्स द्वारा इस शहर के शुरूआती गठन की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। हेप्टेनेशिया' अर्थात 'सात द्वीपों का समूह', मुंबई शहर का अतिप्राचीन ग्रीक नाम है जिसका उल्लेख यूनानी खगोलविद और भूगोलवेत्ता टॉलेमी के लेखन में है, कुछ ऐसी ही जानकारियों और तक़रीबन ३५०० कलाकृतियां इतिहास को समझने में हमारी मदद करती है।


साथ ही, यहाँ समय -समय पर लगने वाली प्रदर्शनियाँ, विशेष कार्यक्रम तथा बच्‍चों के लिए लगी कार्यशालाएं भी लोगों द्वारा खूब पसंद की जाती हैं। पिछले महीने दिल्ली आर्ट गैलरी (DAG) के सौजन्य से संग्रहालय में 'नवरत्न -नाइन जेम्स ' नामक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। 'नवरत्न' नाम से प्रसिद्ध नौ कलाकारों की कलाकृतियों की प्रदर्शनी संग्रहालय के कमलनारायण बजाज दीर्घा में लगाई गयी थी।यहाँ बता दें, भारत सरकार द्वारा पारित ऐंटिक्विटीज ऐंड आर्ट ट्रेजर्स ऐक्ट, 1972 द्वारा भारत के नौ कलाकारों की कलाकृतियों को 'नेशनल आर्ट ट्रेजर्स' का दर्ज़ा दिया गया था. राजा रवि वर्मा, अमृता शेरगिल, निकोलस रोएरिक , गगनेन्द्रनाथ टैगोर, जैमिनी रॉय, अवनीन्द्रनाथ टैगोर, नन्द लाल बोस, रवींद्रनाथ टैगोर और सैलोज मुख़र्जी जैसे दिग्गज कलाकारों के चित्रों से सजी प्रदर्शनी ने कलाकारों द्वारा प्रयोग में लाये गए भिन्न-भिन्न माध्यमों और पेंटिंग के विषयों से भी अवगत कराया।जैसा कि प्रदर्शनी के सम्बन्ध में जानकारी दी गयी थी, कलाकृतियों को देखकर बेशक महसूस किया जा सका कि कैसे पश्चिमी चित्रकला शैली से आरम्भ कर भारतीय कला शैली को एक अलग पहचान देकर उसे ऊंचाइयों तक ले जाने का बीड़ा इन कलाकारों ने उठाया था ।ये कलाकार भारतीय कला-परंपरा को भारत के अपने इतिहास और पौराणिक कथाओं के सन्दर्भ में मोड़ने से जरा भी विचलित नहीं हुए और साथ -साथ इन्हें भारतीय दर्शकों के बीच मान्य बनाने का भी काम किया।

बेशक इनमें रंगों और लकीरों का अद्भुत संयोजन तो है ही, कई दशकों के दरम्यान बने इन पेंटिंग्स के माध्यम से भिन्न -भिन्न समयों में प्रचलित भारतीय जीवन शैली के भी दर्शन कर सकना संभव हो सका । प्राकृतिक सुंदरता हो अथवा प्रकृति और इंसानों के आपसी सम्बन्ध, तत्कालीन ग्रामीण समाज एवं जीवन शैली हो या धार्मिक भावनायें हों , या फिर सामजिक और धार्मिक कुरीतियां पर प्रहार हो, माँ और बच्चे के मध्य प्यारे सम्बन्ध से लेकर भारतीय महिलाओं के वास्तवकि स्थितियों को पेंटिंग के विषय के रूप में चुना गया. इतना ही नहीं, इन पेंटिंग्स के जरिये भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के विभिन्न चरणों को भी बखूबी दर्शाया गया है। नन्द लाल बोस द्वारा बनाये गए दांडी यात्रा का चित्र या अवनीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित भारत माता की एक खास इमेज से उत्पन जोश का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं!

राजा रवि वर्मा ने कई पौराणिक कथाओं और उनके पात्रों के जीवन को अपने कैनवास पर उतारा। सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, राधा या कृष्ण की ज्यादातर तस्वीरें राजा रवि वर्मा की कल्पनाशक्ति की ही उपज हैं। अमृता शेरगिल का अपनी पेंटिंग्स के लिए पेरिस से लौटकर अजंता के भित्तिचित्रों से ली गयी प्रेरणा यह साबित करती है कि अंततः उनकी तूलिका भारतीय रंग में ही रंग गई। जामिनि रॉय द्वारा बाद के वर्षों में बनायी गई पेंटिंग्स पर भारतीय लोक कला और शिल्प परम्पराओं से ली गयी प्रेरणा साफ़ झलकती है। सपाट रंगों का चुनाव और किनारे पर की गयी सजावट इस बात की पुष्टि भी करती दीख रही थी।

प्रदर्शन में लगी अवनीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बनाई गयी मुग़ल शैली की पेंटिंग उनके द्वारा पश्चिमी चित्रकला शैली के प्रभाव को कम कर भारतीय शैली को विकसित करने की पुरजोर कोशिश की मिशाल है. निकोलस रोयरिक के नग्गर की पहाड़ियों में १९ साल तक बसने और वहां की बनाई गए खूबसूरत पेंटिंग्स भी यही इशारा करती दिख रही थीं। हर पेंटिंग के नीचे कलाकारों से जुडी कई ऐसी जानकारियां इस प्रदर्शनी को बहुत ही रोचक बनाये हुई थी, जैसे भारतीय संविधान की प्रथम कॉपी के पन्नों में नन्द लाल बोस द्वारा हाथों से रंग भरना या फिर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इन्ही के द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सभाओं के पोस्टर बनाया जाना इत्यादि। इन कलाकारों द्वारा लिखी गयी और इनके बारे में लिखी कुछ किताबें भी इस प्रदर्शनी की शोभा बढ़ा रही थी। इन कलाकारों के कुछ निजी सामान और हस्तलिखित पत्र भी दर्शन के लिए रखे गए थे।
कला कालजयी होती है! सच है, आज भी ये पेंटिंग्स दशकों बाद उतनी ही प्रासंगिक हैं।


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Saturday 3 November 2018

डिकॉय इफ़ेक्ट :क्या आपका निर्णय 'आपका' है ?



अगर आपने हाल ही में कुछ ख़रीदा है जैसे टीवी, फ्रीज़, ओवन, फ़ोन, पेन ड्राइव  या फिर किसी समाचार पत्र अथवा मैगज़ीन की सदस्यता ? खूब रिसर्च कर, जांच परख कर, कहें तो ठोक बजाकर अपने निर्णय  भले किया हो पर पर जरा सम्भलिये, क्या आपके द्वारा लिया गया निर्णय वाकई आप ही का है ? यह क्या सवाल है? पुनः सवाल को दुहरा देती हूँ. क्या सच में आपका निर्णय आपका ही है ? झटका लगा न ?
कहीं आप 'डिकॉय एफेक्ट ' के चक्कर में तो न पड़  गए ? ये क्या है? इसे एसिमेट्रिक डोमिनेन्स इफ़ेक्ट भी कहा जाता है, ऐसी तकनीक जिसे  उत्पाद कंपनियों द्वारा किसी विशेष सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की जाती है। और मजेदार बात ये कि इसके चक्कर में हम पड भी जाते हैं और  हमें तनिक अहसास भी नहीं होता है। ख़ास बात यह कि, यह महज सामानों से ही नहीं जुड़ा है, वरन हमारे द्वारा लिए गए जीवन के कई छोटे-बड़े निर्णयों  से जुड़ा मुद्दा है. मसलन आप किसे पसंद करते हैं, किसे वोट देते हैं, किस रेस्तराँ में खाना खाने जा रहे हैं या पॉपकॉर्न का कितना बड़ा डब्बा खरीद रहे हैं इत्यादि.


एक साधारण से परीक्षण पर नजर डालते हैं जिसके केंद्र में है, स्लाइम मोल्ड, एक तरह का बैक्टीरिया ,एक रोचक और अत्यंत सूक्ष्म जीव। थोड़ा और जानकारी के लिए बता दें, यह एककोशिकीय जीव होता है और कई बार अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर कई हजार ऐसे जीव संगठित होकर प्लाज्मोडियम का निर्माण करते हैं जिसे हम आसानी से देख भी सकते है. इन नन्हे जीवों के बारे में एक मजेदार बात यह है कि अन्य जीवों की तरह ये भी निर्णय लेने में सक्षम हैं. सुनकर भले ही अविश्वसनीय लगे पर इन दिमागविहीन जीवों द्वारा लिए गए निर्णय साधारण नहीं वरन सोचे -समझे भी होते है. हाँ, इनकी दुनिया सीमित है, तो निसंदेह निर्णय लेने की भी सीमा है,  जैसे उनकी तरफ जाय जो हमें पसंद है मसलन भोजन और उन वस्तुओं से दूरी बनाये जाए जो हमें नापसंद है यथा प्रकाश। अब बात परीक्षण की:
एक पेट्री डिश लेकर उसके एक तरफ ५ ग्राम कुछ खाद्य पदार्थ या भोजन रखते है और साथ में उस क्षेत्र को प्रकाशित कर देते हैं और उसी पेट्री डिश की दूसरी तरफ थोड़ा कम भोजन की मात्रा ३ग्राम रखते हैं जहाँ अँधेरा है. अब पेट्री डिश के बींचो- बीच स्लाइम मोल्ड के समूह को रख देते हैं। स्पष्ट है, स्लाइम मोल्ड के पास दो विकल्प हैं, एक जहाँ भोजन की मात्रा अधिक है पर जहाँ रौशनी है और दूसरा, खाना काम है मगर जहाँ अँधेरा है. निर्णय मुश्किल है. अब प्रश्न है, स्लाइम मोल्ड पेट्री डिश के किस तरफ आकर्षित होंगे? परीक्षण में देखा गया कि दोनों विकल्पों को  ५०-५० % समय तरजीह दी गयी. यानी आधे समय ३-डार्क की तरफ और आधे समय ५-लाइट की तरफ स्लाइम मोल्ड जाते दिखे.  है न आश्चर्यजनक !

अब  इस परीक्षण को थोड़ा और रोचक बनाते हैं, पेट्री डिश में अब एक अँधेरे क्षेत्र में १ग्राम  भोजन रख कर तीसरा विकल्प जोड़ देते हैं.  स्लाइम मोल्ड अब क्या निर्णय लेंगे? कह सकते हैं, इस तीसरे विकल्प का तो स्लाइम मोल्ड द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिये और निर्णय में कोई फर्क नहीं आना चाहिए। पर क्या ऐसा है? नहीं, परीक्षण में देखा गया कि निरर्थक से लगने वाले इस  विकल्प के यहाँ जोड़ देने से स्लाइम मोल्ड पहले विकल्प (५ लाइट) की जगह  दूसरे विकल्प  (३ डार्क) को ज्यादा तरजीह देने लगते हैं. जहाँ दोनों विकल्प  पहली स्थिति में एक समान तरज़ीह पा रहे थे वहीँ दूसरी स्थिति मतलब तीसरे विकल्प जोड़ देने के बाद, दूसरे विकल्प की तरफ तीन गुना ज्यादा दफा स्लाइम मोल्ड आकर्षित हुए. इसका मतलब क्या कि बिलकुल बेतुके से दिखने वाले किसी विकल्प को जोड़कर स्लाइम मोल्ड द्वारा लिए गए निर्णय को अपने हिसाब से तोडा मरोड़ा जा सकता है? जी हाँ, ऐसा संभव है. और हाँ, नीलकण्ठों, मधुमक्खियों और हम्मिंगबर्ड्स के साथ किये गए परीक्षणों में भी यही पाया गया.

अब आई बात समझ में! तो क्या, इंसानों द्वारा लिए गए निर्णयों को भी किसी एक विशेष विकल्प की तरफ मोड़ा जा सकता है? जी हाँ, हम इंसान भी ऐसे ही विकल्पों के चक्कर में फँसकर कई बार ऐसे ही विवेकहीन निर्णय लेने पर मजबूर किये जाते हैं. इसे एसिमेट्रिक डोमिनेन्स इफ़ेक्ट या डिकॉय इफ़ेक्ट की संज्ञा दी जाती है.

डिकॉय इफ़ेक्ट को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है. हम सब सामान्यतः चीजों को कैसे पसंद करते हैं, उपलब्ध विकल्पों से तुलना करके, विकल्पों को एक दूसरे के साथ नापजोख कर और यहीं हम इसके चपेट में आ जाते हैं. एक ऐसे विकल्प का निर्माण कंपनियों द्वारा पेश किया जाता है जो कि तुलनात्मक रूप से तीनों विकल्पों से निम्नतम श्रेणी का है पर किसी एक विकल्प को किसी पैमाने पर अपने से श्रेष्ठ बना देने में सक्षम। यहीं मानव मस्तिष्क गच्चा खा जाता है और तुच्छ होते हुए भी वह विकल्प हमारे निर्णय को किसी एक विशेष विकल्प तक झुकाने में कामयाब हो जाता है.


डैन एरियल की किताब प्रेडिक्टेबली इरेशनल में दिए गए उदाहरण के द्वारा कोशिश करते हैं. कल्पना करिये, द इकोनॉमिस्ट पत्रिका की वार्षिक सदस्यता लेने के लिए ग्राहकों को दो विकल्प दिए गए हैं-


• केवल डिजिटल संस्करण $59 के भुगतान पर

• केवल प्रिंट संस्करण $125 के भुगतान पर


अपनी जरूरतों और पसंद के आधार पर ग्राहक इनमे से कोई भी विकल्प को चुनने के लिए स्वतंत्र है. जब लेखक ने अपने विद्यार्थियों को इनमे से एक विकल्प को चुनने को कहा तब ६८% विद्यार्थियों ने पहले विकल्प को चुना और ३२ % ने दूसरे विकल्प को. मतलब पहला विकल्प ज्यादा लोकप्रिय पाया गया.


अब इस परीक्षण में पत्रिका द्वारा शामिल किये गए तीसरे विकल्प को जोड़ दिया तब विद्यार्थियों को तीन विकल्प मिले:

• केवल डिजिटल संस्करण $59 के भुगतान पर

• केवल प्रिंट संस्करण $125 के भुगतान पर

• प्रिंट और डिजिटल संस्करण $125 के भुगतान पर


अब चीजें कैसे बदली, देखते हैं. जहाँ ६८ % लोगों ने पहले विकल्प को चुना था, अब उनकी संख्या घटकर १६ % रह गयी, दूसरे विकल्प को किसी ने पूछा तक नहीं और ८४ % लोगों ने तीसरे विकल्प में अपनी दिलचस्पी दिखाई. हमारे दिमाग ने उसे यूँ समझा, हालाँकि पहले दो विकल्प एक ही तरह से एक दूसरे से बढ़िया हैं और जो तीसरा कॉम्बो डील है, एक तो वह दोनों अन्य विकल्पों की तुलना में बढ़िया है वहीँ दूसरे विकल्प जितने ही दाम में उपलब्ध है यानी अन्य दोनों विकल्पों से बेहतर है. क्या इस निर्णय को वाकई बढ़िया निर्णय कहा जा सकता है?


अब निम्न दो उत्पादों पर नजर डालते हैं:

A) Hard Drive with 500 GB for $150.

B) Hard Drive with 300 GB for $100.

अगर आपको ज्यादा हार्ड ड्राइव स्पेस चाहिए तो पहले को खरीद सकते हैं और यदि आप ज्यादा पैसा नहीं लगाना चाहते तब दूसरे को. अब अगर यहाँ एक तीसरा विकल्प लाया जाय जो ऐसा है

C) Hard Drive with 400 GB for $170.

तब आप क्या करेंगे? देखा जाता है की ऐसी स्थिति में ऑपशन A चुनने वालों की संख्या में काफी ज्यादा बढ़ोतरी हो जाती है. चलिए अगर कंपनी को विकल्प B की तरफ लोगों को आकर्षित करवाना है तो क्या कोई एक विकल्प और ढूँढा जा सकता है? सोचिये !


आइंदा अगर कोई सामान खरीदते वक्त प्रदत्त विकल्पों में से कोई एक विकल्प आपको हास्यास्पद लगे तो सावधान हो जाइये, हो सकता है उत्पादक मूर्खतावश ऐसा न कर रहे हों. ज्यादा संभावना है कि वह हमारे 'साइकोलॉजिकल बग ' का फायदा उठाकर अपने विशेष सामान की बिक्री बढ़ा रहे हों.


कई गणितज्ञों ने इस अवधारणा को बोरडा काउंट पद्धति से विकल्पों को पसंद के आधार पर अंक आबंटित कर समझाने की कोशिश की है. स्लाइम मोल्ड के परीक्षण को इस तरीके से समझने की कोशिश करते हैं. मान लेते हैं, जो विकल्प पसंद के क्रम में सबसे ऊपर है उसे २ अंक, द्वितीय स्थान पर रखे जाने वाले को १ अंक और तीसरे अर्थात सबसे नीचे रखे जाने वाले को 0 अंक दिए जाएंगे।


स्लाइम मोल्ड के साथ किये गए परीक्षण के पहले केस जिसमें दो विकल्पों, ५ लाइट और ३ डार्क से शुरू करते हैं। ।मान लेते हैं कि प्लास्मोडियम के ५०% स्लाइम मोल्ड (फ़ूड लविंग ) अधिक भोजन को तरजीह देते हैं और ५०% (लाईट हेटिंग) अँधेरे को. और आगे मान लें कि ५लाईट वाले विकल्प को ५०% स्लाइम मोल्ड से २-२ अंक मिलते हैं और बाकी स्लाइम मोल्ड से 0 अंक. इस तरह दूसरे विकल्प को भी ५० % स्लाइम मोल्ड से २-२ अंक मिलेंगे और बचे स्लाइम मोल्ड 0 अंक देंगे । ऐसी स्थिति में पहले विकल्प को मिलेंगे

२*0 . 5 +०*0 . 5 यानि १ और दूसरे विकल्प को भी मिलेंगे 0 *0. 5+२*0 . 5 यानि दोनों को १ -१ पॉइंट मिलते हैं।



अब दूसरे केस में, जहाँ तीसरा विकल्प १- डार्क भी जुड़ गया है वहां अंकों का बंटवारा थोड़ा अलग होगा। देखते हैं: ५ लाइट को जस का तस आधे स्लाइम मोल्ड से २ -२ अंक मिलेंगे और लाइट हेटिंग मोल्ड देंगे 0. तब कुल अंक हो गए 1.


३ -डार्क को फुड लविंग जो कि ५०% हैं, वो दूसरे स्थान पर रखेंगे और अंक मिलेगा १ और साथ ही, लाइट हेटिंग जो कि कुल स्लाइम मोल्ड के ५०% हैं, तीसरे विकल्प के जुड़ जाने के बाद इस ५०% समूह के २५% या तो पहले स्थान पर रखेंगे अथवा दूसरे स्थान पर. इस तरह ३-डार्क के कुल अंक होंगे 1 *५०%+२*२५%+१*२५% यानि की कुल अंक 1. २५


१ डार्क के विकल्प को फ़ूड लविंग द्वारा तीसरे स्थान पर रखने और लाइट हेटिंग बैक्टीरिया के समूह (५०%)द्वारा या तो पहले स्थान पर रखने अथवा दूसरे स्थान पर रखने की स्थिति में कुल अंक मिलेंगे:


0 *0. 5 +१ *0. 2 5 +२*0. २५ यानि कुल 0. 75


अर्थात तीसरे विकल्प के आ जाने से ३-डार्क वाला विकल्प ज्यादा लोकप्रिय बन गया! है न ये ब्यूटी ऑफ़ डिकॉय इफ़ेक्ट।

Thursday 4 October 2018

फोर्टनाइट! ये क्या बला है ?



क्या आपने सुना, पति-पत्नी के रिश्तों में अलगाव के लिए कई कारणों मसलन ड्रग्स, नशा,जुआ, बेवफाई, दहेज़ इत्यादि के अलावा एक और कारण भी हो सकता है, वह है फोर्टनाइट। फोर्टनाइट, भला ये क्या बला है?तो सुनिए, यूके की एक वेबसाइट 'डिवोर्स ऑनलाइन' द्वारा कराये गए एक सर्वे के मुताबिक यूके में जनवरी से लेकर अभी तक फाइल हुए ४६६५ तलाक के मामले में २०० याचिकाओं में प्रमुखता से 'फोर्टनाइट गेम खेलने की लत' को जिम्मेदार बताया गया है। डिजिटल क्रांति का यह दौर कहीं 'फुटबॉल विडो' के तर्ज़ पर 'फोर्टनाइट विडो जैसा कुछ इज़ाद तो नहीं कर रहा? स्पष्ट है, यह गेम महज बच्चों को ही नहीं वरन वयस्कों को भी अपनी ओर आकर्षित करने में उतना ही सक्षम है। खिलाडियों की संख्या के लिहाज से देखें तब इसने अन्य सभी ऑनलाइन खेले जा रहे गेम को पीछे छोड़ दिया है. आंकड़ें कहते हैं, अभी तक यह गेम १२५ मिलियन लोगों द्वारा डाउनलोड किया जा चुका है जबकि नवम्बर २०१७ में यह संख्या २०मिलियन ही थी। निश्चित रूप से संख्या में यह उछाल इस गेम की बेमिसाल लोकप्रियता की पुष्टि करता है। ख़बर है, हर महीने औसतन चार करोड़ लोग इस खेल को खेलते भी हैं। फोर्टनाइट बैटल रोयाल गेम के प्रति लोगों का जनून इस कदर है कि प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के लिए लोग अच्छी खासी रकम का भुगतान कर कोच की मदद तक ले रहे हैं☺

क्या है फोर्टनाइट
माना जाता है कि प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री विलियम हिगिनबाथम द्वारा सन १९५८ में बनाये गए 'टेनिस फॉर टू' नामक वीडियो गेम से ऑनलाइन गेमिंग की शुरुआत हुई थी। तब से लेकर अब तक कई ऑनलाइन गेम्स ने लोगों को अपना दीवाना बनाया है और 'फोर्टनाइट बैटल रोयाल' को इसी कड़ी का नवीनतम सदस्य माना जा सकता है।

यह गेम एक पोस्ट अपोकलिप्टिक दुनिया या कहें एक खत्म होती दुनिया में खुद का अस्तित्‍व बनाए रखने की जद्दोजहद से जुड़ा है जिसे खेलने के लिए खिलाड़‍ियों को खुद का ऑनलान अवतार तैयार करना होता है। शुरुआत होती है, 100 खिलाडि़यों को एक सिकुड़ती दुनिया में भेज दिए जाने से, या तो अकेले या फिर ४ के समूह में, जिनके पास अलग-अलग टास्‍क पूरा कर खुद को जिंदा रखने की चुनौती है। तमाम बधाएं पार करके, जोम्बियों से मुकाबला कर अंत तक जो जीवित बचेगा वही विजेता घोषित किया जायेगा । हालांकि हरेक खिलाड़ी को मात्र एक कुदाल जैसे हथियार के साथ गेम की शुरूआत करनी होती है, लेकिन खेल के दौरान खेल के मैदान में उपलब्ध कई तरह के हथियारों, कवच और उपकरणों को हासिल कर अपने को शक्तिशाली बनाया जा सकता है, उनका उपयोग कर दुश्मनों को फंसाने के लिए तरह- तरह के जाल बनाये जा सकते हैं और खुद दुश्मनों से बचने के लिए वहां के लैंडस्केप और भवनों को ढूंढ सकते हैं। यह भी संभव है कि कई अन्य संसाधनों की खोज कर उनकी सहायता से भी ऐसी संरचनायें अपने बल पर निर्मित की जाए जहाँ खिलाड़ी खुद को मुश्किल की घडी में छिपा सकें और अपनी रक्षा कर सकें। लक्ष्य होता है, यथासंभव अपने दुश्मनों को मार भगाते हुए शस्त्रागारों को खाली कर देना।


इन सब घटनाओं के साथ -साथ, खेल के आभासी मैदान में एक बड़ा- सा गोला दिखाई देना और उसे खिलाडियों के लिए सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया जाना और कुछ- कुछ मिनटों में उस गोले का सिकुड़ते चला जाना खेल को और रोचक बनाता जाता है. बस यही नहीं, इस गोले के किसी हिस्से में फिर से एक नया गोले का यकायक बन जाना और अब उस नए बने क्षेत्र को सुरक्षित कह कर खिलाडियों की चुनौतियाँ को बढ़ा देना खेल के प्रति खिलाडियों को और भी गंभीर बना देता है। ऐसे किये जाने का मकसद होता है सभी प्रतिद्वंदी खिलाड़ियों को आस-पास होने को मजबूर किया जाना और मुकाबले को और भी दिलचस्प बनाना।

फोर्टनाइट को लेकर लोगों के दिल और दिमाग पर छाया नशा, कीबोर्ड पर तेजी से खटखटाती उंगलियां सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर इसके इतनी तेजी से लोकप्रिय होने के क्या कारण हैं? इसी अवधारणा पर आधारित अन्य गेम मसलन माइनक्राफ्ट, PUBG या WoW की तुलना में क्या खास है फोर्टनाइट मे?

क्या खास है फोर्टनाइट में

हर तरह के प्लेटफार्म जैसे एंड्राइड , ios , मैक ,विंडोज और गेमिंग कंसोल पर यह गेम मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है। यह एक मल्टीप्लयेर गेम है, दोस्तों के साथ मिलकर इसे खेला जा सकता है |प्रतिभागी अपने हेडसेट और माइक्रोफोन से लैस होकर एक दूसरे से चैट भी कर सकते हैं. कई बच्चों ने तो बाकायदा फोर्टनाइट टीम का गठन किया है और साथ में अभ्यास भी करते हैं.

लोगों का मानना है कि अन्य इसी श्रेणी के खेलों की तरह इसे गंभीर न बनाकर इस गेम को हल्के - फुल्के , आसान और मजेदार रूप में पेश करना इसे अन्य गेम की तुलना में अधिक लोकप्रिय बनाता है। इसके रंग -बिरंगे ग्राफिक्स लोगो को बहुत पसंद आते हैं. इमोट्स फोर्टनाइट का एक खास फीचर है जिसके तहत कई तरह के इमोट्स को अपनी इच्छानुसार खास बटन कमांड के रूप में परिवर्तित किये जाने की खिलाडियों को एक खास सुविधा दी गयी है. कई तरह की छोटी-छोटी चीजें इस गेम को लोकप्रिय बनाने में मददगार रही है जैसे किसी खिलाड़ी की जीत की ख़ुशी में किया गया छोटा- सा नृत्य। यह नृत्य बहुतों को बचकानी लग सकती है, पर सच्चाई है कि यह निराला अंदाज खिलाडियों को बहुत भा रहा है।

माइनक्राफ्ट गेम की तरह इसमें भी खिलाडियों को कई तरह की सामग्रियों जैसे पत्थर, लकड़ियां, कई तरह के धातु को जुटाने का साहसिक काम और उन सामग्रियों का उपयोग होशियारी और रचनात्मक तरीके से करना होता है ताकि दुश्मनों से छिप कर अपने को बचा सकें। इसके अलावा फोर्टनाइट में किसी ऊँची जगह या पहाड़ों पर चढने के लिए सीढ़ियों को बनाने का अवसर मिलता है, अपनी सुरक्षा के लिए एक ऊँची दीवार बनानी पड़ सकती है, लकड़ी की सहायता से किले बनाने होते हैं।

अन्य इसी श्रेणी के खेलों से यह इस मामले में भिन्न है की इसमें खिलाड़ियों को अपनी जरूरतों, रूचि के हिसाब से मैप में परिवर्तन लाने की छूट दी गयी है।

इतना ही नहीं, हर कुछ दिनों में नए-नए चरित्रों, हथियारों , पोशाकों, नृत्य मुद्राओं, मैप लोकेशन को गेम में समावेश कर खिलाडियों के समक्ष कुछ नया पेश कर लोगों की इस खेल में दिलचस्पी बनाये रखने की पूरी कोशिश की जाती है। जैसे कि गार्जियन ऑफ़ द गैलेक्सी के स्टार लार्ड से प्रेरित रस्ट लार्ड आउटफिट का गेम में उपलब्ध होना।

गेम बनाने वाली कंपनी 'एपिक गेम्स 'खिलाडियों के कमेंट और फीडबैक को नजरअंदाज नहीं करती है। कंपनी की इस नीति ने यकीनन इस गेम को लोकप्रिय बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।गेम में किसी तरह की त्रुटि के उजागर किये जाने पर यथाशीघ्र उसका हल निकाला जाता है।

पिछले सीजन के गेम पर नजर डालें तब देख सकते हैं कि जहाँ प्रतिद्वंदियों को हराने के लिए एक बेहतर रणनीति का बनाये जाने के लिए सामग्रियां उपलब्ध कराई गयी हैं वहीँ मनोरंजन की दृष्टि से कई फनी तरीकों को भी शामिल किया गया है, जो हास्यास्पद होते हुए भी लोगों को आकर्षित करने में सफल भी हुए हैं जैसे दुश्मन को फॅसाने के लिए जमीन पर या छतों पर जाल बिछाना, दुश्मनों से बचने के लिए अपने आप को किसी अन्य रूप में परिवर्तित कर सकना, राकेट लांचर से राकेट पर जा पहुँचना या फिर किसी दुशमन पर बूगी बम फेंककर उसे नाचने पर मजबूर कर देना !!


खिलायों को गेम में अपनी मर्ज़ी के हिसाब से कुछ परिवर्तन किये जाने की छूट दी गयी है, चाहे तो तत्काल युद्ध में शामिल हो सकते हैं या कुछ इंतज़ार के बाद, या तो बहुत भीड़ -भाड़ इलाके में अपने आप को डाल सकते हैं या नहीं, मतलब अपनी मर्ज़ी, अपनी रणनीति। चाहे तो इंतज़ार कर सकते हैं उस समय का जब केवल १० खिलाड़ी बचे हों। मतलब अपने गेमप्ले को खुद निर्धारित करने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान की गयी है।

अब आते हैं फोर्टनाइट की एक अन्य खास बात पर! यह गेम मुफ्त में उपलब्ध है, कहने का मतलब कि बिना एक भी पैसे का भुगतान किये इस गेम को खेला जा सकता है. पर, मार्किट रिसर्च फर्म सुपर डेटा द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक इस गेम का अप्रैल २०१८ में २९६ मिलियन डॉलर अर्जित किया जाना अचंभित नहीं करता? फ्री गेम और आय इतनी! माजरा क्या है? बात यह है कि कुछ पैसे देकर इस गेम में बेसिक बैटल पास या कुछ अधिक पैसे देकर प्रीमियम बैटल पास ख़रीदा जा सकता है और इससे खरीदने वालों को एक्सेस मिलता है विशिष्ट परिधानों, बैग या फिर चमचमाते कुदाल जैसी चीजों पर. इसके अलावा यदि कोई अच्छा खेलता है और गेम के लिए सेट साप्ताहिक चुनौतियों को पार करता है तब उसे पॉइंट्स दिए जाते है जिसका उपयोग कर वह अन्य चीजों पर एक्सेस प्राप्त कर सकता है। बैटल पास के लिए कुछ निश्चित V-Buck भुगतान करने होंगे, अब आप पूछेंगे कि ये क्या बला है? जी, दुनिया अलग है तब मुद्रा भी तो अलग होगी? खैर बता दें, १००० V-Bucks को डाउनलोड कररने के लिए £7.99 पौंड चुकाने होंगे। इसके लिए और भी अन्य स्किम खेल संचालकों ने मुहैया कराई है जो की गेम के एक सीजन तक ही वैध है। यहाँ बता दें,फोर्टनाइट गेम सीजन में डिवाइडेड है और तत्काल सीजन ६ चल रहा है . कुछ पोशाकों को अलग से खरीदने का भी प्रावधान है। पर यहाँ उल्लेखनीय है, बैटल पास के माध्यम से खरीदी गयी चीजों से कोई भी खिलाड़ी अधिक शक्तिशाली नहीं बन रहा है और उससे उसके गेम खेलने की कला पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। यह पूर्णतः कॉस्मेटिक बदलाव है। इस खेल को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है कि कुछ नवीनतम और विशेष परिधानों तक पहुँच बनाने के लिए खिलाडियों को और अधिक खेलते रहने को विवश होना पड़ता है।

हालाँकि बच्चों के खेलने के समय पर नियंत्रण के दृष्टिकोण से पैरेंटल कण्ट्रोल जैसी सुविधा दी गयी है, पर उसके एवज में किसी खिलाडी के बीच में गेम छोड़ देने की स्थिति में चल रहे मुकाबले में अर्जित पॉइंट्स में उस खिलाडी के दल को कुछ अंक गंवाने पड़ते हैं।


गेम की बच्चों के मध्य बढती लोकप्रियता ने निश्चित रूप से माता - पिता और अभिभावकों को चिंता में डाला है. ब्लू व्हेल गेम और मोमो चैलेंज खेलने वाले कुछ बच्चों द्वारा आत्महत्या करने की खबरों ने सतर्कता बरतने को जरूरी भी बनाया है। कंपनी ने इस बाबत अपने बचाव में दावा किया है कि उनके द्वारा गठित सेफ्टी टीम अपलोड किए गए सभी ईमेजेज, वीडियो और ऑडियो फाइल को रिव्यू करती है। मल्टीप्लेयर शूटर गेम होने के बावजूद मार-पीट, खून-खराबे जैसे तत्व न डालकर इस गेम को बच्चों के अनुकूल बनाये रखने की कोशिश की गयी है।

यह सर्वविदित है, आज के डिजिटल युग में डिजिटल नशे के रूप में पहचाने जाने वाले ऑनलाइन गेमिंग, सोशल मीडिया इत्यादि समाज पर गहरा असर करते दिख रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संघटन द्वारा 2018 में प्रकाशित 'इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ़ डिजीजेज' के 11वें संस्करण में 'गेमिंग डिसऑर्डर' को एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या के तौर पर चिह्नित कर इसकी निगरानी किए जाने को जरूरी बताना, इस मुद्दे को गंभीरता से लेने की वकालत भी करता है। कई देशों में सोशल मीडिया एडिक्शन स्केल नामक पैमाना भी ईजाद किया गया है, जिसके जरिये पता लगाया जाता है की किसे सोशल मीडिया की कितनी लत है और उसके आधार पर डी एडिक्शन क्लास में ले जाने और इलाज कराने की व्यवस्था भी की गयी है।

परन्तु इसका मतलब यह नहीं की सभी प्रकार की गेमिंग बुरी है, अगर WHO के ही आंकड़े पर ध्यान दें, तब मात्र २ से ३ प्रतिशत खिलाडी ही गेमिंग डिसऑर्डर के शिकार है। पर हाँ, अति सर्वत्र वर्जयेत की तर्ज़ पर इतनी सलाह दी जा सकती है कि इनके अत्याधिक उपयोग से बचें ताकि किसी तरह के नुकसान को न झेलना पड़े।








































Thursday 23 August 2018

बाल कहानी: द डे द क्रेयॉन्स क्विट

बाल कहानी: द डे द क्रेयॉन्स क्विट

कहानियां सुनने-सुनाने का इतिहास बहुत ही पुराना है. बस ज़िक्र हो कहानियों की और मन कल्पना के अथाह सागर में डुबकी लगाने को तत्पर हो जाता है. खासकर बच्चों की बात करें, उनकी आँखों में आई चमक को देखकर कहानियों के महत्व को समझा जा सकता है. कहानियों अपने विभिन्न पात्रों चाहे चाँद -सितारे हों या उमड़ते -घुमड़ते बादल, गुड्डे -गुड़िया या नन्ही चिड़िया, पेड़ या पर्वत, कोमल से खरगोश या गर्जन करते शेर,राजा-रानी या परियां और चुड़ैल, के माध्यम से जहाँ बच्चों को अचरज से भर देती हैं वहीँ उनकी कल्पनाशीलता को नए आयाम देती हैं. कहना गलत न होगा, एक अच्छी कहानी के द्वारा बच्चे के मन के उड़ान का अंदाजा लगाना असंभव है. कहानियां बच्चों की कल्पनाशीलता को तो बढ़ाती ही है साथ ही भाषा एवं व्याकरण का ज्ञान, देश- दुनिया की कई जानकारियां, मानव जीवन के जरूरी पहलूओं से परिचय भी कराती है। निसंदेह,कहानियां बच्चों का मनोरंजन कर ख़ुशी भी देती हैं, कुल मिलाकर इसे एक अत्यंत जरूरी सार्थक गतिविधि कहा जा सकता है. और, माता-पिता, शिक्षक और अभिभावकों द्वारा बच्चों का बचपन में ही किताबों से दोस्ती कराया जाना और पढ़ने की आदत डलवाना एक अनुपम उपहार साबित होता है.

पर यहाँ कई सवाल खड़े होते हैं जैसे किताबें कैसी हों, बच्चों की रूचि कैसे जगाई जाए? सबसे महत्वपूर्ण है, बाल साहित्य का बच्चों के लिए आसानी से उपलब्ध होना और साथ ही हरेक बच्चे के पसंद के हिसाब की किताबें चुनने की व्यवस्था का होना। हर बच्चे की पसंद अलग-अलग होती है, किसी को परीकथाएं पसंद आती हैं, किसी को साहसिक कारनामे से जुड़े किस्से या किसी को साइंस फिक्शन. जरूरी है, बच्चों की अभिरूचि, आस-पास के परिवेश, जरूरतें,समझ के स्तर ,उनकी पसंद-नापसंद का ध्यान रखकर कहानियां और कवितायेँ पढ़ने को दी जाएँ, खूबसूरत चित्रों के साथ प्रकाशित कहानियां उनमे पढ़ने के उत्साह को और बढ़ा देती है. इस बात को न भूला जाए की बच्चे बड़ों से भिन्न होते हैं. बाल साहित्य के क्षेत्र में काम करने वालों का यह भी मानना है कि बालसाहित्य के नाम पर नीति, धर्म, अध्यात्म आदि को केंद्र में रखकर छापे जा रहे ‘उपदेशक साहित्य’ के अलावा बच्चों की रुचि, मनोरंजन एवं उपयोगिता को केंद्र में रखकर बाल साहित्य की रचना ज्यादा जरूरी है ताकि इनके माध्यम से बच्चों के बौद्धिक विकास के साथ- साथ भविष्य की चुनातियों से निपटने के लिए तैयार भी किया जा सके. एक अच्छा बाल साहित्य उसे ही समझा जा सकता है जिसमें मात्र सीख की ही बात न हो वरन बच्चों की भागीदारी भी महसूस की जाए, बच्चों को जवाबदेही की प्रक्रिया से जोड़ा जाए. ऐसा साहित्य जो केवल राजा-रानी, परियों, सुन्दर वन तक ही सीमित न होकर जिंदगी की पेचीदगियों से रूबरू कराये और विचारने की समझ विकसित करने में उनकी मदद करे. बच्चों के कोमल मन जैसी अवधारणा के आड़ में दुनिया की जटिलताओं से परिचय नहीं कराने और उनसे दूर ले जाने से से बेहतर यह नहीं की उन्हें इन विषयों की जानकारी देकर उनसे निपटने में उनकी मदद की जाए । इस तर्ज़ पर कि गन्दगी न देखने से गन्दगी खत्म नहीं हो जाती, गन्दगी खत्म करनी है तब हमें गन्दगी से जूझना होता है.

चलिए आज बात करते हैं कथाकार ड्रियू डेवॉल्ट और चित्रकार ऑलिवर जेफर्स की जोड़ी द्वारा बच्चों के लिए रचित एक मनोरंजक कहानी 'द डे द क्रेयॉन्स क्विट' की. खूबसूरत चित्रों से सजी एक छोटे बच्चे डंकन और रंग भरने वाले क्रेयॉन की समस्याओं की कहानी! ड्रियू डे वॉल्ट की २०१३ में प्रकाशित जहाँ यह पहली पुस्तक थी वहीँ इस कहानी में चित्रों से जान डालने वाले ऑलिवर जेफर्स उस समय तक बाल साहित्य के क्षेत्र में अच्छा मुकाम पा चुके थे. उनकी पहली ही किताब 'हाउ टू कैच अ स्टार' बच्चों का मनोरंजन करने में काफी सफल रही थी। इसके अलावा लॉस्ट एंड फाउंड, द इनक्रेडिबल बुक ईटिंग बॉय और स्टक भी खूब चर्चा में रही है. खासकर उनके द्वारा बनाये गए बच्चों की तरह बनाये गए चित्रों और हस्तलिखित स्टाइल से लिखी गयी कहानियों को लोगों ने खूब सराहा.

यह किताब भी उसी अंदाज में लिखी गयी है. शायद, बच्चों के लिए कहानी से खुद को जोड़ना स्वाभाविक और आसान बन जाता है. बड़े और छोटे लेटर्स को मिलाकर लिखने में की जाने वाली गलतियां इस कहानी में देखने को मिलती है और एक सुखद अहसास कराती है! कहानी है एक बच्चे डंकन की और असंतुष्ट क्रेयॉन्स की! पात्रों के रूप में क्रेयॉन का चुना जाना निश्चित रूप से अचंभित करता है, पर साथ में कहानी पात्रों के चयन से रोचक भी बन जाती है. सरल भाषा शैली इसे और भी मनोरंजक बनाती है. जैसा की ऊपर लिखा है, चित्रों ने कहानी में जान दाल दी है. क्रेयॉन के हाथ में प्लाकार्ड{घोषणापत्र) और उस पर लिखा उनका सन्देश 'we are not happy' आपको खुलकर हसने पर मजबूर करता है.

कहते है, एक असंभव सी कल्पना और फंतासी की रचना बच्चों को वास्तविकता से भरी कहानियों के मुकाबले अधिक मनोरंजन करने में सफल होती हैं. इस दृष्टि से लेखक यहाँ सफल दिखाई देते हैं.

कहानी शुरू होती है डंकन को मिले हरेक रंगों के क्रेयॉन द्वारा लिखे गए पत्रों से. हर क्रेयॉन ने पत्र के माध्यम से अपनी समस्याएं डंकन को बताई है. मसलन, लाल रंग की समस्या यह है कि पूरे साल तो काम में लगा ही रहता है और छुट्टियों में भी सांता और वैलेंटाइन को रंग-रंग कर थक चुका है, वहीँ बीज की शिकायत यह है कि उसे काम ही नहीं मिलता, भूरे रंग को भालू, घोड़े और पप्पी मिल जाते हैं और उसके पास आता है गेंहूं और गेंहू में रंग भरने में किस बच्चे को मजा आता है आदि ? पीले और नारंगी रंग के मध्य विवाद को सुनकर आप आश्चर्यचकित हो सकते हैं वहीँ सफ़ेद रंग के केवल बर्फ और बिल्लियों को ही रंग सकने के तर्क को सुनकर हतप्रभ! क्या हल निकालेगा डंकन सबको खुश करने का? समस्या का समाधान है, डंकन द्वारा लिया गया एक बोल्ड निर्णय, एक कलात्मक अंत.
शिकायतों का पुलिंदा होते हुए भी कहानी बोझिल नहीं होती, कह सकते हैं की लेखक ने ह्यूमर को एक -एक पंक्ति में बचाकर रखा है. लेखन शैली में दोहराव नहीं है, हरेक पत्र को पढ़ने में उतना ही मजा आता है जितना पहले पत्र को पढ़ने में. चित्रों के माध्यम से हरेक क्रेयॉन के अलहदा व्यक्तित्व ,मनोभावों यथा गुस्सा, दुःख, थकान आदि को बखूबी दर्शाया गया है.

सबसे खास बात इस कहानी की, आप अपने बच्चों को देख सकते हैं एक अलग ही कल्पना करते, उनके बनाये रंगीन चित्रों से दीवारों को सजाते ..तैयार हैं आप☺

Friday 27 July 2018

कुछ ख्याल: मुंबई के कुछ उपनगरों से गुजरते हुए

छोटी -छोटी बूँदें मूसलाधार बारिश में तब्दील होकर मुंबई में हरेक साल नए कीर्तिमान बनाती है। कई अप्रिय घटनाएं मन को व्यथित करती हैं, वहीँ हमें सोचने पर मजबूर भी कि क्या इन मुसीबतों का हल नहीं ? प्रकृति के इस कहर के जिम्मेवार हम ही हैं और इनका समाधान हमें ही ढूंढना होगा। 

ऐसी ही लगातार होती बारिश के भय ने हमारे पिछले कुछ वीकेंड्स में घूमने जाने की योजना पर भी पानी फेर दिया।प्रकृति की रहमदिली ही कहिये, पिछले रविवार मौसम ने हमारा साथ दिया और हम निकल पड़े मुंबई की एक छोटी सैर पर. घूमने की जगहों की एक लम्बी सूची में से हमने इंडोर जगह घूमने को ही प्राथमिकता दी, और चुना मुंबई के एक उपनगर भायखला (Byculla )स्थित डॉ भाऊ दाजी लाड संग्रहालय को। खुशकिस्मती हमारी कि हमने एक ही परिसर में अवस्थित होने के कारण और प्रकृति की दया से संग्रहालय से ही सटे वीरमाता जीजाबाई उद्यान और ज़ू के भी दर्शन किये।एक तरफ जहाँ मुंबई की पुरानी कला-संस्कृति को जानने का मौका मिला वहीँ दूसरी तरफ प्रकृति को थोड़ा करीब से देखने का अवसर।

भायखला जाने के लिए हमें ईस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे पकड़नी थी, ईस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे यानि EEH, मुंबई के दक्षिणी और उत्तरी भाग को जोड़ती२३.५५ किमी लम्बी सड़क। छत्रपति शिवजी टर्मिनस से ठाणे तक दौड़ती और मुंबई के पूर्वी उपनगरों को एक-एक कर छूते हुए, रोजाना लाखों की संख्या में लोगों को अपने मुक़ाम तक पहुँचाती यह सड़क ।और, इस सड़क के समानान्तर दौड़ती है मुंबई की लाइफ लाइन 'लोकल ट्रेन' की सेंट्रल लाइन। मुंबई के पूर्वी सबर्ब को 'ईस्ट' और 'वेस्ट' में विभाजित करते हुए। मसलन घाटकोपर ईस्ट, घाटकोपर वेस्ट और दादर ईस्ट, दादर वेस्ट इत्यादि।

यात्रा शुरू हो चुकी थी। योजनानुसार, घाटकोपर से ईस्टर्न एक्सप्रेस लेकर कई पूर्वी उपनगरों को लांघकर भायखला पहुँचना था। रविवार को अपेक्षा के अनुरूप सड़क पर गाड़ियों की संख्या कम ही थी. सबसे बड़ा फायदा यह कि पहुँचने और लौटने के समय का अनुमान लगा पाना संभव है. सबसे पहले पहुंचे घाटकोपर, हाँ वही मुंबई का पूर्वी सबर्ब घाटकोपर जो पिछले महीने एकचार्टर्ड प्लेन के एक निर्माणाधीन इमारत से टकराने की हृदय विदारक घटना, की वजह से समाचारों में था । एक घनी आबादी वाला मुंबई का उपनगर ,जहाँ से मेट्रो रेल पकड़कर मुंबई के पश्चिमी सबर्ब वर्सोवा तक जाया जा सकता है. हाँ, मुंबई के पूर्वी हिस्से को पश्चिमी हिस्से से जोड़ने वाली मुंबई की पहली मेट्रो लाइन का एक मुख्य स्टेशन घाटकोपर।

ईस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे पर हम चल रहे हैं, सड़क के दोनों ओर यातायात सम्बन्धी हिदायतें देते बोर्ड दीखते हैं, हमारी ही सुरक्षा के लिए हमें सावधान करते निर्देश। स्पीड लिमिट का एक एक बोर्ड जिस पर एक लाल रेखाओं से बने एक वृत्त के मध्य ४० लिखा है, पर सड़क पर हवा से बातें करती गाड़ियों को देखकर आगे लगे बोर्ड पर नजर ठहरती है और याद आती है २ दिन पहले ही बच्चों के क्लासेज के सन्दर्भ में बातचीत के दौरान किसी की कही हुई बात, आई लव रूल्स, सीरियसली! मैं सोचने लगती हूँ, डू वी ???

घाटकोपर छूटा और पहुंचे वडाला । हरेक उपनगर अपने आप में भरा पूरा एक शहर। ट्रैफिक लाइट पर दीखती हैं, ग्रीन लाइट होने के इंतज़ार में खड़ी गाड़ियों में बैठे लोगों को फूल की मालाएँ बेचने की कोशिश करती घस्त्रियां और बच्चे। ध्यान में वो साडी चीजें एक के बाद एक आने लगती है, जो यूँ ही ट्रैफिक लाइट पर ख़रीदे हैं मैंने, छोटे-बड़े खिलौने, बेन १० का बबल गन, डस्टिंग क्लॉथ, भूने मूंगफली और चने, मच्छर मारने की रैकेट, किताबें, फूल, झंडे, पेंसिल, पेन, और अभी हाल में मिटटी का तवा... और अन्य काफी रंग- बिरंगी चीजें बिकते देखा है... मेह्नत की कमाई भीख माँगने से बेहतर है। वहीँ सवाल यह भी उठता है की क्या ट्रैफिक के परिचालन और दुर्घटनों के मद्देनजर हमें इन सामानों को न खरीदकर इसे हतोत्साहित करना चाहिए? बत्ती हरी हो चुकी थी और पुनः गाड़ी रफ़्तार पकड़ने लगी. थोड़ी ही दूर आगे सुमननगर के बोर्ड के नीचे एक औरत फूलों की माला को हाथों में लिए खड़ी दिखी, ट्रैफिक के पुनः रुकने का इंतज़ार में.

वडाला कब गुजरा और सायन पहुंचे, अंदाज लगाना मुश्किल । सब एक दूसरे में समाये हुए.. सायन (शीव)यानि सरहद या सीमा। जैसा की नाम से ही अनुमान लगाया जा सकता है, १८वीं शताब्दी में मुंबई में प्रवेश करने वालों पर यहीं निर्मित किले से नजर रखी जाती थी। यह पहाड़ी अपनी ऊँचाई के कारण सामुद्री यातायात पर नज़र रखने के लिए महत्वपूर्ण था भले अब वहाँ समुद्र का अता पता नहीं चलता। आज इस इतिहास को समझने के लिए पुराने नक़्शे खंगालने होंगे जब आज का मुंबई शहर ७ -अलग-अलग द्वीपों में वितरित था, २२ पहाड़ियों से घिरा हुआ. सायन से कोलाबा (मुंबई का दक्षिणी भाग) तक पूर्वी और समुद्रतट के किनारे-किनारे पश्चिमी हिल रेंज के होने को विश्वास करना मुश्किल।
आगे पहुंचे दादर, मुंबई का पहला प्लांड सबर्ब। सिद्धिविनायक मंदिर, शिवाजी पार्क, हिन्दू कॉलोनी, पारसी कॉलोनी, मराठी फिल्मों की नामचीन हस्तियों का बसेरा, एक और पूर्वी सबर्ब। सड़क के दोनों तरफ छोटी-बड़ी, दुकानों की भारी संख्या इशारा करती कि कितने लोगों की पनाहगार है, यह सबर्ब। दादर का अर्थ है, 'सीढ़ी'. यक़ीनन मुंबई के प्रमुख द्वीप को अन्य द्वीपों से जोड़ने वाला कड़ी... मुंबई के 'कॉटन मिल युग' के समय कई प्रसिद्द कॉटन मिल मसलन बॉम्बे डाईंग, गोल्ड मुहर मिल, कोहिनूर मिल, रूबी मिल और टाटा मिल यहीं स्थापित किये गए थे. और अगर खाने की बात की जाए तब यह जानना बड़ा ही रोचक है कि विश्व प्रसिद्ध 'वड़ा पाव' ने सर्वप्रथम यहीं दादर स्टेशन पे ही लोगों को अपना दीवाना बनाया।

अब बात परेल की, हमारा अगला पड़ाव। पुनः कहना जरूरी नहीं कि दुकानों के ऊपर लगे बोर्ड से ही यह जानना संभव हुआ कि हम किसी और सबर्ब में प्रवेश कर चुके हैं। मूलतः कपड़ा मिलों का केंद्र रहे इस इलाके में मिलों के बंद होने के बाद दक्षिण मुंबई के कई व्यावसायिक केंद्र यहाँ स्थापित हुए, कई कॉर्पोरेट दफ्तर खुल गए. बायीं-दायीं नज़ारे घुमाने भर से ही इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. पिछले वर्ष की मुंबई में एल्फ़िंस्टन और परेल के लोकल रेलवे स्टेशनों को जोड़ने वाले पुल पर मची भगदड़ की घटना इशारा करती है कि हमें इस सबर्ब में अचानक बढ़ी भीड़ की सुरक्षा के इंतेज़ाम के बारे में गहराई से पड़ताल करनी चाहिए।


बस कुछ ही देर में हम पहुंचे भायखला स्थित अपने गंतव्य जीवाजी उद्यान के परिसर में, सबसे मजेदार बात, यहाँ पेंगुइन देखे जा सकते हैं.. है न अनोखी बात। पेंगुइन और मुंबई में ? है न यह मायानगरी !

Tuesday 19 June 2018

असल्फा :चल रंग दे


दो दिनों तक कभी तेज, कभी छिटपुट बारिश के बाद आज मौसम कुछ साफ़ है, आज सुबह धूप खिली थी. खिड़की के बाहर देखती हूँ, दूर तक जहाँ तक नजर जा सके. घाटकोपर पहाड़ी की ढलान दिखती है, और दीखते हैं उसी ढलान पे बने कई छोटे-छोटे, सटे-सटे से घर और कुछ घरों की छतों को बारिश से लड़ने की ताकत देते नीले तिरपाल शीट. नजर पड़ती है, कहीं से निकलते धुएँ पर, शायद कोई छोटा कारखाना है! सामने एक मस्जिद और कुछ ही दूरी पर एक मंदिर की दीवार. यह मुंबई के कई बड़े स्लमों में से एक असल्फा स्लम का एक छोटा- सा हिस्सा है, यक़ीनन वह हिस्सा नहीं जिसपर  मेट्रो में सफर करने वाले यात्रियों की नजर पड़ती है और जो इटली के अमाल्फि कोस्ट पर बसे पोसितानो शहर की याद दिलाता है. तंग गलियों, छोटे अँधेरे घरों, नालों और दूर -दूर तक फैली गन्दगी से पहचाने जाने वाले स्लम से बिलकुल अलग जिनकी दीवारों पर इंद्रधनुषी रंग बिखेरे गए हैं. बस्ती की बाहरी दीवारों पर अलग-अलग तरह के डिजाइन बनाए गए हैं. बस्तियों की १७५ दीवारें  ७५० लोगों, ४०० लीटर पेंट और तक़रीबन ६ दिनों की मदद से अब बदरंग नहीं रही हैं.

स्लम के किसी एक विशेष हिस्से का मेकओवर कर इन बस्तियों के प्रति आम लोगों की धारणा बदलने और इन बस्तियों के निवासियों के जीवन में सकारात्मकता के रंग भर सकने में कितनी कामयाबी मिलेगी ? और, आम लोगों की धारणा बदलने से क्या स्लम में रहने वाले लोगों की समस्याएं ख़त्म या कम हो जायेंगी?  तो क्या कुछ लोगों का कहना सही है कि इस प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य मेट्रो में सफर करने वालों के लिए बस यह एक खुबसूरत नज़ारे की रचना है? क्या सचमुच रंग रोगन से बस्ती को कोई लाभ हुआ है या बस लोगों की जिज्ञासा इन बस्तियों के प्रति बढ़ गयी है? तो क्या यह 'स्लम टूरिज्म ' जिसे कुछ लोग 'पोवर्टी पोर्न' की भी संज्ञा देते हैं, का एक नया गंतव्य बनने वाला है?

स्लम के मेकओवर को अंजाम देने वालों का उद्देश्य बस्ती को नई पहचान दिलाना और फिर इसके बाद इसकी समस्याओं को सामने लाना भी है. आशा है, वे सफल होंगे।

Saturday 19 May 2018

शादी: एक यादगार दिन या कुछ और


कुछ दिन पहले ही बातों-बातों में मैंने अपनी घरेलू सहायिका से पूछा, " कुछ बचाती हो अपने बच्चे के लिये ?" शादी ३ साल पहले हुई है और लगभग २ साल का बच्चा है उसका। उसने जवाब में कहा,"कहाँ दीदी, खर्चे इतने हैं और ऊपर से कर्ज़ा।" खर्च की बात तो समझ में आ गयी, महंगाई से तो सब परेशान हैं. पर क़र्ज़! उत्सुकतावश मैं थोड़े झिझक के साथ पूछ ही बैठी, " क़र्ज़ क्यों लिया?" "मैंने नहीं लिया, मेरे पति ने लिया था", उसका उत्तर था. मेरे क्यों पूछने पर उसने बताया " शादी थी न हमारी, उसके लिए लिया था, खाना खिलाना, गिफ्ट देना, कपड़े देना, सब करना पड़ता है।" उसकी आवाज में थोड़ा दर्द महसूस किया मैंने। दाम्पत्य जीवन की चुनौतियाँ क्या कम हैं और अगर उसकी शुरूआत एक भारी-भरकम क़र्ज़ के साथ हो, किसी के लिए भी कष्टकारी है. उस एक दिन को यादगार बनाने के नाम पर अभी तक की जमा-पूँजी या कई दफा क़र्ज़ लेकर खर्च कर देना और फिर लम्बे समय तक उसे चुकाते रहने की विवशता को क्या कहेंगे?
इस वार्तालाप के बाद मेरी यह धारणा कि शादियों में दिखावा या जरूरत से ज्यादा पैसे खर्च करने की प्रवृति महज समाज के ऊँचे और मध्यम वर्ग तक ही सीमित है, पूरी तरह से बदल गयी. बाजारवाद कहें या भौतिकवाद, इंसानों की किसी भी गलत परंपरा को शीघ्र अपना लेने की कमजोरी जैसी कई वजहों से यह प्रवृति समाज के हर तबके द्वारा अपना ली गयी है. बमुश्किल हजारों में निपटे जा सकने वाली शादियों के लिए ढेर सारा पैसा व्यर्थ गंवाया जाता है. विडम्बना यह कि, इस तरह पैसे को गंवाकर समाज में हम अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने, दूसरों से बड़ा कहलवाने और अपनी इज्जत बढ़ा लेने का झूठा दम्भ पालने लगते हैं और साथ ही, इसे एक बुराई मानने को भी तैयार नहीं होते हैं. कभी यह सोचने का यत्न नहीं करते कि क्या हमारे द्वारा चुनी गयी दिशा सही है? और -तो-और अपनी मान -मर्यादा के नाम पर अपने बच्चों की शादियों पर ढेर सारे पैसे खर्चकर उन्हें यह अहसास करवाने से भी न चूकते कि देखो हमें तुमसे कितना प्यार है! भले ही बच्चों को अपने गृहस्थ जीवन की शुरुआत खाली हाथ ही क्यों न करना पड़े।

आज प्रिंस हैरी और मेगन मार्केल की शाही शादी 1000 साल पुराने विंडसर किले के सेंट जॉर्ज चैपल में होने वाली है। लम्बे समय से चर्चा में रही इस शादी की राजघराने की अन्य शादियों के पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ देने की संभावना है। समारोह का दुनियाभर में सीधा प्रसारण किया जाएगा। विवाह -बंधन में बंधने जा रहे जोड़े से लेकर दुनियाभर की बड़ी-बड़ी हस्तियों के शिरकत, बटरक्रीम की फ्रॉस्टिंग और ताजे स्प्रिंग फ्लॉवर्स से सजे ४५ लाख रुपये का केक या 6 हजार पाउंड की वेडिंग रिंग, टिगनानेल्लो (Tignanello) वाइन, विंडसर कासल ट्रीट चॉकलेट ट्रफल और शाही दावत की झलकियां पाने के लिए करोड़ों लोग बेसब्री से इंतजार में लगे हैं. दैनिक जागरण में छपी एक खबर के मुताबिक इस शादी की लोकप्रियता को लेकर हाल ही में ब्रिटेन की एक मार्केट रिसर्च फर्म ने एक सर्वे भी किया है। सर्वे में जो सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा था वो था इस शाही शादी में भारतीयों की दिलचस्पी। सर्वे में शामिल कुल भारतीयों में से 54% भारतीयों ने माना कि वे प्रिंस हैरी और मेगन की शादी को लेकर उत्साहित हैं वहीं ब्रिटिश नागरिकों की बात करें तो सर्वे में सिर्फ 34% नागरिकों ने शाही शादी में रुचि दिखाई। जानकारी के मुताबिक, इस सर्वे में 16 से 64 वर्ष के बीच के 28 देशों के करीब 21 हजार लोगों ने हिस्सा लिया था।
भारतीयों की शादियों में दिलचस्पी जगजाहिर है, यहाँ के विवाहों की रौनक, चमक-धमक, संगीत तो विदेशी पर्यटकों को भी लुभाने लगा है. पर सवाल उठने लगा है कि यह फिजूलखर्ची नहीं है? खासकर भारत जैसे गरीब देश जिसमे आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखे सोने को मजबूर है, शादी-विवाह जैसे आयोजनों में आडंबर और शानो-शौकत पर इस प्रकार के धन, समय और संसाधनं की बर्बादी न्यायसंगत है ? क्या 'बिग फैट वेडिंग' को लेकर सच में हमें गर्व महसूस करना चाहिए?
आश्चर्य इस बात का है कि भारतीय शादियों का कारोबार अब बढ़कर करीब 1.२५ लाख करोड़ का हो गया है और हर वर्ष इसमें २०-३० % का इजाफा भी हो रहा है । यानि हर साल शादियों को और भी भव्य बनाने की होड़ जारी है, एक- दूसरे से ऊपर अपने आप को समझने की होड़ । डेस्टिनेशन वेडिंग, बीच वेडिंग,एडवेंचरस वेडिंग जैसे अंडरवाटर वेडिंग बंजी जंपिंग, मिड एयर वेडिंग, वाइल्ड लाइफ थीम पर शादियां आयोजित की जा रही हैं. हेलीकाप्टर से विदाई और पुष्प वर्षा, आलीशान मंडप, लजीज व्यंजन का इंतज़ाम कर विवाह की मधुर स्मृतियाँ संजोयी जा रही है या फिर कहें कि समाज में हैसियत, रुतबे को दिखाने का नया तरीका इज़ाद किया गया है। एक छोटा-सा पारिवारिक उत्सव दिखावे, शान-शौकत और सामाजिक प्रतिष्ठा का पर्याय बन गया है.

विलियम डेलरिम्पल की किताब 'द लास्ट मुग़ल' के पहले अध्याय में वर्णित मिर्ज़ा जवां वख़्त की शादी के जश्न का ब्यौरा भव्य शादियों को लेकर हमारी कमजोरी को दर्शाता है । लाल किले की लाहौरी गेट से रात के दो बजे बारात का निकलना, जमकर की गयी आतिशबाजियां, सजे हाथियों और घोड़ों का काफिला, देखने के लिए उमड़ा लोगों का हुजूम, त्योहारों जैसा समां बाँध रहा था. अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफ़र की पत्नी ज़ीनत महल ने अपने बेटे की शादी में छोटी - से -छोटी चीजों पर ध्यान दिया था चाहे महल की साफ़-सफाई हो या उसके दीपों और झाड़फानूसों से सजावट की बात हो या फिर मेहंदी की रस्म से लेकर लजीज पकवानों , कपडे, आभूषणों, दूल्हे के सेहरे को मोतियों से सजाने की, कोई कसर नहीं छोड़ी गयी थी. पूरे हिन्दुस्तान भर से पाइरोटेक्निशियन को बुलाकर उनके हुनर को परखा गया था। ज़ीनत महल द्वारा इस विवाह को आलिशान बनाये जाने का एक मकसद अपने बेटे के हैसियत में इज़ाफ़ा और साथ ही इस राजवंश में अपनी स्थिति को भी मजबूत करना था ।

सवाल यह उठता है कि क्या यह फिजूलखर्ची को किये बिना इस पवित्र बंधन को यादगार नहीं बनाया जा सकता? शायद संभव है, सादगी से इस पुनीत कार्य को अंजाम देकर कई जोड़ों ने यह साबित किया है कि बिना तामझाम की शादी भी लोगों के लिए यादगार बन सकती है । अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के भिंड में आयोजित दो आईएएस अधिकारियों आशीष वशिष्ठ और सलोनी की शादी हो अथवा सूरत के भरम मारू और दक्षा परमार की शादी या हैदराबाद के निवासी शशि किरण टिक्का और पूर्णिमा दीपिका के परिणय सूत्र में बंधने की खबर, इन तमाम हो-हल्ले के साथ हो रही शादियों के मध्य एक खुशनुमा अहसास जगाती है । कुछ जोड़ों द्वारा शादी के खर्चे होने वाले पैसे को जमा कर हर साल उससे मिलने वाले ब्याज को जरूरतमंद बच्चों पर खर्च करने का लिया जाने वाला संकल्प क्या कम महत्वपूर्ण है? क्या माँ-पिता के द्वारा इसी तरह का निर्णय लिया जाना बच्चों की नजर में उनके कद को ऊँचा करने वाला साबित न होगा? इस कुरीति में भागीदार न बनकर क्या हम एक उदहारण बनाकर समाज के अन्य लोगों को प्रेरित करने का संकल्प नहीं ले सकते? बाहरी तामझाम से प्रभावित न होकर और एक अदृश्य, अनकही प्रतियोगिता में शामिल न होकर मात्र दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद और शुभकामनायें प्रेषित कर हम इस पारिवारिक उत्सव के असल मकसद को फिर से कायम करने का प्रयत्न नहीं कर सकते?

इस फिजूलखर्ची को हमें जल्द से जल्द रोकना होगा वर्ना यह गरीबों को और गरीब कर देने वाला साबित होता जा रहा है, मध्यम वर्ग को कर्ज़ के दलदल में धँसाता जा रहा है और अमीरों को दिखावे की लत से ग्रसित करती यह परंपरा उन्हें और अधिक लालची और रिश्वतखोर बनाता जा रहा है. जितनी जल्दी हो सके कानून बनाकर, सामाजिक तरीके से जागरूकता फैलाकर या कठोर कदम उठाकर इस परंपरा को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। आज का युवा जो हर मुद्दे पर, हर मोर्चे पर सामाजिक बुराइयों को दूर कर देने के कार्य में तत्पर दिखाई देता है, वह इस ढोंग से अपने को दूर न कर सकेगा, यह कहना सही नहीं है.






Sunday 13 May 2018

हैप्पी मदर्स डे

आज मदर्स डे है। एक माँ के प्यार, समर्पण, त्याग को याद कर परिवार के अन्य सदस्यों की ज़िंदगियों में उनकी अहमियत का अहसास दिलाये जाने का दिन. इन दिवसों को मनाये जाने का एक सकारात्मक साइड इफ़ेक्ट है कि दुनियाभर में एक माँ की भूमिका की कदर की जाने की शुरुआत हुई है, मातृत्व की चुनौतियों को महसूस किया जा रहा है, निम्न दर्ज़े का काम समझेजाने वाले इस काम के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा है और  साथ ही लोगों को अपनी माँ के प्रति खुलकर अपनी भावनाओं का इज़हार करने का मौका भी मिल रहा है. संदेश भेजकर, उपहार या कार्ड देकर, या बुके देकर इस प्यार से भरे रिश्ते का को और भी प्यारा बनाया जा रहा है. सब रिश्तों से अनमोल माँ-बच्चे के इस रिश्ते को अनोखे ढंग से मनाने के तरीके ढूंढें जा रहे हैं. कोई मौका खोना नहीं चाह रहा अपनी माँ को जता देने का, हाउ मच आई लव यू...
और क्यों न जताया जाए, माँ -बच्चे का रिश्ता होता ही है बहुत प्यारा। जन्म देने से लेकर जीवन के हर कदम पर थामे रहती है, माँ अपने बच्चे का हाथ। कभी प्यार से और कभी सख्ती से एक गुरु या दोस्त बनकर जीवन का पाठ पढाती है,निस्वार्थ। अपने बच्चे और परिवार की ज़िन्दगियों में खुशियाँ भरने के लिए खुद की खुशियों की कुर्बानियां देने से नहीं चुकती। मिस वर्ल्‍ड के फाइनल राउंड में मानुषी छिल्लर से पूछे गए सवाल कि 'किस प्रोफेशन को सबसे ज्यादा सैलेरी मिलनी चाहिए' के जवाब के तौर पर  'एक मां को सबसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए और जहां तक सैलरी की बात है, तो इसका मतलब रुपयों से नहीं बल्कि सम्मान और प्यार से है' कहे जाने पर दुनिया भर के लोगों द्वारा पसंद किया जाना हर माँ की बच्चे के जीवन में एक विशेष भूमिका को साबित करता है.
रोते हुए बच्चे को बस माँ की गोद चाहिए होती है शांत होने के लिए. हलकी लगी चोट के दर्द गायब होने के लिए   माँ का केवल वह जादुई स्पर्श या एक हलकी फूँक काफी होती है. किसी प्रतियोगिता में जाने से पहले माँ का अपने बच्चे के ऊपर विश्वास बच्चे के आत्मविश्वास को कम होने नहीं देता। 'चाहे कुछ भो हो जाये, मैं तुम्हारे साथ हूँ' का आभास कराकर बच्चों के हर सुख-दुख के क्षणों में उनके साथ ताउम्र सहारे के रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खड़ी रहती है। कितनी ही बदमाशियों को झेल जाती है और कभी गुस्सा हुई तो मनाने के लिए जरूरी होती है बस थोड़ी सी मिन्नत! बहुत बड़ा दिल होता है माँ का. कहते हैं, भगवान् हर जगह नहीं हो सकते इसलिए उन्होंने माँ को बनाया।

इतना प्यार और सम्मान जहाँ रिश्तों को और अधिक मधुर बनाने में मददगार है, वहीँ एक माँ के रूप में एक औरत से और अधिक जिम्मेवार होने की अपेक्षा भी करता  है। बच्चे को जन्म देने से लेकर उसकी परवरिश और अन्य दायित्वों का निर्वहन निसंदेह एक जटिल कार्य है, जिसका नाता बच्चे के व्यक्तित्व के विकास से जुड़ा है. हर इंसान के व्यक्तित्व पर अपनी माँ के व्यक्तित्व का अच्छा -खासा प्रभाव पड़ता है. इसका प्रमाण हमें कई सफल व्यक्तियों की जीवनियों को पढ़कर मिलता है. जीवन के प्रति नजरिया, विषम परिस्थितियों से मुकाबला करने के तरीकों और संतुलित व्यवहार से लेकर बच्चों से जुड़े हर छोटे- बड़े मुद्दों में माँ की भूमिका पहले से ज्यादा बढ़ गयी है. ऐसे में हर वक्त अपने आप को और बेहतर और समझदार इंसान बनाने की कोशिश जारी रख, अपनी एवं अन्य की गलतियों और अनुभवों से सीखने और उसे न दुहराने का वादा खुद से कर इस चुनौती का सामना करने के लिए हर माँ को तैयार रहना होगा। इस जटिल काम का प्रशिक्षण किसी भी विश्वविद्यालय में नहीं दिया जाता और एक अच्छी औरत होना एक अच्छी माँ होने का लाइसेंस भी नहीं देता.




Friday 11 May 2018

किताबें और हम


किताबें हमेशा से ही हमारी संस्कृति और इतिहास का अभिन्न हिस्सा रही हैं। भले ही किताबों का स्वरुप कुछ अलग था पर क्ले टैबलेट्स, लौह पत्रों, चर्म पत्र, ताड़ पत्रों, मिट्टी की पटि्टयों, भोजपत्रों,पेपाइरस आदि पर उकेरे चिन्ह या शब्द इस बात का प्रमाण हैं कि हर युग में इंसानों ने अपने विचार,ज्ञान और अनुभवों को लिखकर संरक्षित करने और भावी पीढ़ी तक हस्तांतरण को महत्वपूर्ण माना है.


किताबें हैं क्या ? किसी के लिए ज्ञान का भण्डार, देश-दुनिया के आश्चर्यजनक रहस्यों और महत्वपूर्ण सूचनाओं का संग्रह, किसी की लिए मानसिक तनाव को दूर करने और मनोरंजन का साधन और किसी के लिए अकेलेपन का साथी और एक सच्चा दोस्त। किताबें दुनिया भर की जानकारियाँ अपने पन्नों में समेटे कभी शिक्षक बन जाती है, कभी पिता के रूप में कहानियां कहकर अच्छे -बुरे का भेद करना सिखाती है, वास्तविक दुनिया से हमारा परिचय कराती है और कभी हमारी भावनात्मक और बौद्धिक जरूरतों को पूरा कर एक माता की भी भूमिका निभाती है. दूसरों के विचारों से अवगत करा हमारी कल्पनाशीलता में नए पंख लगाती है, हमारी सोच में विस्तार करती है. निसंदेह मानसिक स्तर पर हमें और अधिक परिपक्व बनाकर एक बेहतर इंसान बनाने का बेहतरीन माध्यम हैं किताबें। फिर क्यों न, किताबों से दोस्ती कर ली जाए ?

अधिक-से-अधिक लोगों को किताबों से जोड़ने और पढ़ने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से २३ अप्रैल को . यूनेस्को(यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन) द्वारा हरेक वर्ष विश्व पुस्तक दिवस दुनिया भर में मनाया जाता है. भारत में भी केन्द्रीय संस्थानों, पुस्तकालयों, विद्यालयों और दूसरे शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित कर लोगों को अध्ययन के प्रति जागरूक करने की दिशा में प्रयास किये जाते हैं. अलग-अलग शहरों में आयोजित किये जाने वाले पुस्तक मेलों का उद्देश्य भी किताबों के प्रति लोगों की रूचि बढ़ाना ही है. हर आयु वर्ग के लोगों को ध्यान में रखकर लाखों की संख्या में पुस्तकें प्रदर्शन के लिए रखी जाती है। कहानियाँ, कवितायेँ, नाटक, उपन्यास, व्यंग्य, चित्रों वाली किताबें हों अथवा ज्ञान-विज्ञान के अद्भुत संसार से परिचय कराती किताबें, हर विषय पर किताबें लिखी जाती हैं, बस जरूरत है, अपनी पसंद के हिसाब से किसी किताब के चुनने का.

उल्लेखनीय है, किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी इच्छानुसार हर पुस्तक खरीद पाना संभव नहीं है. इस समस्या का आसान- सा समाधान है, पुस्तकालय। पुस्तकालय का सदस्य बन कर वहां संग्रहित पुस्तकों, फ़िल्मों, पत्रपत्रिकाओं, मानचित्र, हस्तलिखित ग्रंथ, ग्रामोफोन रेकार्ड, ई-बुक्स एवं अन्य पठनीय सामग्रियों का लाभ उठाया जा सकता है. पर क्या सचमुच पुस्तक पढ़ने की चाह रखने वालों के लिए हम उनकी इच्छा पूरी कर पाने में सक्षम हैं? गौरतलब है, सूचनाओं को अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने की दिशा में कार्यरत अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ लाइब्रेरी एसोसिएशन एंड इंस्टीच्यूशन द्वारा तय पैमाने के मुताबिक हर ३००० की जनसँख्या पर एक सार्वजानिक पुस्तकालय होनी चाहिए। इस लिहाज से भारत की कुल जनसँख्या के हिसाब से यहाँ तक़रीबन ४ लाख सार्वजनिक पुस्तकालयों की आवश्यकता है जबकि लगभग ६०००० ही पुस्तकालयों का होना निराशा जगाता है. विद्यालयों खासकर सरकारी विद्यालयों में पुस्तकालयों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. बहुधा पुस्तकालय जैसी कोई व्यवस्था रहती नहीं हैं, और अगर रहती भी है तो कहीं कोने में पड़ी एक छोटी- सी अलमारी में कुछ किताबें 'पुस्तकें अनमोल धरोहर हैं' की तर्ज़ पर बंद रखी जाती हैं. विडम्बना यह कि मेरी प्रिय पुस्तक, मेरे प्रिय लेखक या पुस्तकालय का महत्व जैसे विषयों पर लेख बच्चे निबंध की किताबों से रट्टा मारकर हर साल परीक्षाओं मे लिख आते हैं. कक्षा में बैठाकर और टेक्स्टबुक रटाकर शिक्षा के असली मकसद को प्राप्त करना असंभव है। किताबें पढ़ने से शब्द ज्ञान और विश्लेषण क्षमता में विस्तार तो होगा ही साथ ही पढ़ने की क्रिया को और भी रोचक बनाया जा सकता है.

किताबों की उपलब्धता हरेक के लिए आसान और सुनिश्चित करने के लिए पुस्तकालयों के निर्माण को हमारी प्राथमिकताओं में शामिल करना होगा। चुनौती न केवल ज्यादा संख्या में पुस्तकालयों को बनाने की है वरन पुस्तकालयों का अधिक-से-अधिक किताबों और अन्य सामग्रियों से समृद्ध और लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकने में सक्षम होना भी जरूरी है. इसी मद्देनजर सन १९७२ में भारत के सांस्कृतिक विभाग द्वारा राजा राममोहन रॉय फॉउंडेशन की स्थापना की गयी. इसके अलावा भारत सरकार ने पुस्‍तकालय सेक्‍टर के विकास के लिए लम्‍बी अवधि की योजनाएं और रणनीतियां तैयार करने के लिये सन २०१२ में एक उच्‍च स्‍तरीय समिति 'राष्‍ट्रीय पुस्‍तकालय मिशन'(NML) का भी गठन किया है जिसका उद्देश्‍य राष्‍ट्रीय भारतीय वर्चुअल पुस्‍तकालय की स्‍थापना, मॉडल पुस्‍तकालयों की स्‍थापना, पुस्‍तकालयों का गुणात्‍मक / मात्रात्‍मक सर्वेक्षण तथा क्षमता निर्माण करना है। एशिया के सबसे बड़े साहित्यिक उत्‍सव-जयपुर साहित्‍य उत्‍सव का प्रत्‍येक वर्ष जनवरी माह में जयपुर में आयोजित किया जाना भी पुस्तकों को लेकर लोगों को जागरूक बनाने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है. इस सम्बन्ध में पुस्तकालय अधिनियम लागू करना भी उल्लेखनीय है जिसके तहत राज्य सरकार की सभी शिक्षण संस्थानों चाहे सरकारी हो या गैर-सरकारी, प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्च-शिक्षा तक के संस्थानों में पुस्तकालय का होना अनिवार्य कर दिया गया है. हालांकि अभी भी भारत के केवल १९ राज्यों में ही पुस्तकालय अधिनियम पारित किया जा सका है और उसपर भी कुछ राज्यों में यह अधिनियम अभी कुछ साल पहले ही लागू किया गया है. आशा है, जल्द-से -जल्द यह व्यवस्था देश के अन्य राज्यों में भी लागू कर दी जायेगी।

बाल किताबों को प्रकाशित करने वाली संस्था, प्रथम बुक्स का 'हर बच्चे के हाथ में किताब' योजना के तहत भारत की विभिन्न भाषाओँ में किताबें प्रकशित कर कम कीमत तक बच्चों तक पहुंचाने की कोशिश सराहनीय है. ' डोनेट अ बुक' या 'मिस्ड कॉल दो और कहानी सुनो ' जैसे कैम्पेन बच्चों में पढ़ने की आदत डालने के मकसद से चलायी गयी है. ऐसे कई एनजीओ हैं जो गांवों में बच्चों को शिक्षित करने के कार्य में लगे हुए हैं और कई पुस्तकालय इन ट्रस्ट व संगठनों द्वारा सुदूर इलाकों में चलाए जा रहे हैं.

कहा जा सकता है, ज्ञान आधारित समाज का निर्माण किया जाना किसी राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है और इस लक्ष्य को हासिल करने का अति महत्वपूर्ण साधन है, किताबें।

Monday 16 April 2018

शिक्षा और परीक्षा

अरसे से शिक्षा के क्षेत्र में कोई अच्छी खबर के इंतज़ार कर रहे कानों में सीबीएसई बोर्ड की परीक्षाओं से पूर्व प्रश्न पत्र लीक की खबर पड़ना अत्यंत निराशाजनक है। स्कूल की क्लासेस,एक्स्ट्रा क्लासेज, ट्यूशन, क्रैश कोर्स, अपनी इच्छाओं की कुर्बानी देकर दिन -रात एक कर परीक्षा की तैयारी में जुटे रहना  और फिर परीक्षा के रद्द होने की खबर मिलने के बाद छात्र -छात्राओं की 'काटो तो खून नहीं ' जैसी हालत होना स्वाभाविक है। व्यवस्था की विफलता से सीबीएसई बोर्ड की साख पर कई सवाल तो खड़े हो ही रहे हैं, साथ ही वर्तमान परीक्षा-व्यवस्था भी पुनः कठघरे में है. आये दिन उत्तर पुस्तिकाओं के बीच चिपके  १०,२० या ५० रुपये के नोट को लेकर शिक्षकों द्वारा बच्चों के परीक्षा के अंक बढ़ा कर मदद कर देना या बिना पूरी उत्तरपुस्तिका को पढ़े अंदाजन अंक बिठा देने के कारनामे  अथवा सिफारिश, कुछ पैसों के लालच में अथवा जान-पहचान के नाम पर अंक बढ़ा देने की मेहरबानियों की खबरों से लेकर सारे नियम- कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए परीक्षा-केंद्रों पर  धड़ल्ले से होती नक़ल, पर्चों का परीक्षा के पूर्व ही लोगों के हाथों में हाजिर होने जैसी घटनाएँ योग्यता मापने के इस तरीके पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता जताती है. इन घटनाओं पर नकेल कसने की सरकार द्वारा की गयी तमाम कोशिशें भी इन्हे पूरी तरह रोकने में असफल ही साबित हो रही हैं. ऐसे में, सीबीएसई के वरिष्ठ अधिकारी का शिक्षा के क्षेत्र में माफियाओं की जड़े कोल माइनिंग इंडस्ट्री से भी ज्यादा गहरी होने की बात स्वीकारना सरकार द्वारा भविष्य में ऐसी घटनाओं के घटित न होने के आश्वासन पर क्या विश्वास किया जा सकता है? संभव है, हालिया घटित प्रश्नपत्र के लीक का मामला सुलझ भी गया हो, संलिप्त अपराधी पकड़े भी गए हों, पर क्या  भविष्य में ऐसी घटनाओं पर रोक लगा पाना संभव है, जबकि परीक्षा के संचालन का जिम्मा संभाले लोग ही ऐसे कदाचारों में शामिल पाए जाते हैं? 


अब सबसे अहम् सवाल यह है कि क्या वजहें होती हैं, परीक्षा में नक़ल की, प्रश्न पत्र के लीक की ?जाहिर सी बात है, विषय को सीखकर उससे संतुष्टि पाने से ज्यादा परीक्षा में सफल होने और अधिक -से -अधिक अंक हासिल करने की अभिलाषा ही इसके कारण हैं. कागज़ पर लिखे नंबर ही बाकियों से श्रेष्ठ अथवा कमतर समझे जाने  के प्रमाणपत्र बन गए हैं. माता-पिता की ऊँची उम्मीदों पर खरा उतरने का दवाब और साथ ही विद्यालय की साख  जैसे भी कुछ अन्य कारण हैं, जिसके परिणामस्वरूप येन केन प्रकारेण अच्छे नंबर लाने केलिए विद्यार्थी किसी भी हद तक जाने को तैयार होते हैं, चाहे रास्ता अनैतिक और गैरकानूनी ही क्यों न हो.
विडम्बना यह है कि सजा वो भुगतते हैं जो इस व्यवस्था में भागीदार नहीं हो पाते. कम अंक मिलने की स्थिति में, एक-एक अंक से अपने मनपसंद विषयों के न मिलने या कॉलेजों में प्रवेश की जद्दोजहद में बच्चे मानसिक अवसाद के शिकार होते हैं और कभी -कभी आत्महत्या जैसे गंभीर कदम उठाने पर मजबूर. छोटी उम्र में मात्र एक परीक्षा में मिले अंक का भविष्य का आधार मान लेना क्या हमारी मूर्खता नहीं है? जबकि, ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है जिसमें शुरूआती असफलता के बावजूद लोगों ने जीवन में कामयाबी पाई है, एक मुकाम हासिल किया है. सीखने-सिखाने पर आधारित व्यवस्था से कोसों दूर नंबर की होड़, शिक्षण संस्थानों के झूठे आडम्बर और गलाकांट प्रतिस्पर्धा ही शिक्षा की आधुनिक परिभाषा बन गयी है और भारतीय शिक्षा व्यवस्था धीरे-धीरे 'भारतीय परीक्षा व्यवस्था' में तब्दील हो गयी है और साथ में शिक्षा की गुणवत्ता में लगातार गिरावट देखी जा रही है, शिक्षा का स्तर बद से बदतर होता जा रहा है।

परीक्षा के दौरान तनावमुक्त और प्रसन्न रहने की जरूरत पर हाल ही में देश के प्रधानमंत्री का बच्चों के साथ संवाद एक अच्छा प्रयास है पर क्या यह ज्यादा उचित न होगा कि हम समस्या की जड़ को समझें और वहीँ से व्यवस्था में सुधार की कोशिश करें. ज्यादा से ज्यादा अंक अर्जित करने की प्रेरणा देने वाली शिक्षा से इतर एक ऐसी प्रणाली के बारे में सोचा जाए जो बच्चों में सीखने की ललक को ताउम्र बरक़रार रख सके. एक अदद नौकरी प्राप्ति की लालसा  पाले एक इंसान की जगह आत्मविश्वास से लबरेज, अपने बलबूते कुछ हासिल करने का हौसला रखने वाला, उद्यमी, चरित्रवान एवं जागरूक व्यक्ति का निर्माण कर सकने में सक्षम हो .
शिक्षण के तरीकों में सुधार, अच्छे शिक्षकों की बहाली और साथ में परीक्षा के तरीकों पर तत्काल ध्यान देना जरूरी है. सीबीएसई बोर्ड द्वारा बच्चों के मूल्याङ्कन की दृष्टि से शुरू किये गए 'सतत एवं व्यापक मूल्यांकन' (continuous and comprehensive evaluation )पद्धति पर पुनर्विचार कर इस तरह से लागू किये जाने  की जरूरत है जिससे इसके वास्तविक उद्देश्यों को पूरा किया जा सके. हरेक बच्चे को उसकी गति और क्षमता के हिसाब से ही प्रशिक्षित किये जाने की बात हो या बच्चे की परीक्षा तभी ली जाए जब बच्चा तैयार हो या फिर विद्यालय के भयमुक्त वातावरण की निर्माण की बात हो, जैसे कई उद्देश्यों वाली इस मूल्यांकन पद्धति को  सफलतापूर्वक लागू कर शिक्षा के क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन लाने की परीक्षा अब हमारी है.





Friday 30 March 2018

शादी और सरनेम



नाम इंसान की पहचान है, इंसान के व्यक्तित्व का हिस्सा। जन्म के समय दिए नाम पर ही टिके रहना या उसे बदलना किसी भी इंसान का व्यक्तिगत निर्णय है. पर, कई देशों में शादी के बाद महिलाओं को अपना सरनेम हटाकर अपने पति का सरनेम लगाना कानूनन जरूरी है. हालांकि, हमारे देश में ऐसी बाध्यता नहीं है परन्तु परंपरागत रूप से शादी के बाद औरतों के सरनेम बदलने की प्रथा रही है। जहां अक्सर लड़कियाँ शादी के बाद इसे सहर्ष या फिर थोड़े दवाब में स्वीकार कर लेती हैं वहीं कुछ महिलायें डबल-बैरल्ड या हाइफ़नेटेड नाम अपनाकर यानी अपने सरनेम के साथ पति का भी सरनेम जोड़कर एक नई पहचान बनाती हैं. परन्तु कई महिलाओं को यह नामांतरण का ख्याल रास नहीं आता. अचानक से शादी के बाद अपने घर-परिवार और जन्म स्थान छोड़ने के साथ -साथ वर्षों से जुड़े नाम और उससे बनी पहचान को बदल देना आसान नहीं होता।

कुछ वर्ष पूर्व शादी डॉट कॉम द्वारा कराये गए सर्वेक्षण में 24 से 38 वर्ष के बीच 11 हजार 200 अविवाहित महिलाओं से जब उनके विचार मांगे गए तो 40.4 फीसदी ने कहा कि शादी के बाद वे अपना सरनेम नहीं बदलना चाहतीं। सरनेम के बदलने को लेकर यदि विकसित देशों के आंकड़ों पर नजर डालें, 1994 में यूरोबैरोमीटर के एक सर्वे में दावा किया गया था कि 94 प्रतिशत ब्रितानी महिलाएं शादी के बाद अपने पति का नाम अपना लेती हैं. हालाँकि,पिछले दो दशकों में इस आंकड़े में कुछ कमी आई है और वर्ष 2013 में यह 75 प्रतिशत तक पहुँच गया.

स्पष्ट है कि महिलाओं के सामाजिक स्थिति में बदलाव के साथ -साथ यह मुद्दा उतना सरल नहीं रहा. हमारे समाज में शुरू से पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है, जिसके तहत शादी के बाद लड़कियों का अपने माता -पिता और भाई-बहन को छोड़कर अपने पति के साथ ससुराल में बसने और उसी परिवार के एक अंग के रूप में माने जाने का रिवाज रहा है और नाम में किये जाने वाला बदलाव, उसी की एक कड़ी है. शादी के बाद बने नए रिश्तों के साथ खुद को जोड़ने और परिवार का नाम आगे बढ़ाने को लेकर यह जरूरी समझा जाता था.

लेकिन सवाल उठता है कि क्या आधुनिक समाज में जहाँ स्त्रियों की सोच, दशा में व्यापक परिवर्तन हुये हैं , इस तरह नाम बदलने की परंपरा कायम रखना जरूरी है? परंपरायें तो इंसान की सहूलियत के लिए बनायी जाती है और अगर यह आपसी विवाद का मुद्दा बनने लगे तो क्या किया जाए?

सरनेम बदलने के पक्ष में तर्क दिया जाता है लड़की को शादी के बाद मिली नयी पहचान के लिए यह एक आवश्यक कदम है। कई लोगों का दावा है कि विवाह के बाद पति-पत्नी दोनों को उनके अलग -अलग अस्तित्व के रूप में न देखकर एक पारिवारिक इकाई के रूप में जाना जाता है, ऐसे में दोनों का सरनेम एक होना अनिवार्य है. कुछ औरतों का मानना है कि शादी के बाद पति की पहचान को अपने नाम के साथ जोड़ने से दोनों के बीच बना यह रिश्ता और दृढ होता है। यह पति और ससुराल पक्ष की ओर औरतों का समर्पण भी जाहिर करता हैै. इस सन्दर्भ में पितृसत्तात्मकता जैसे तर्क को यह कहकर ख़ारिज किया जाता है कि विवाह पूर्व लड़कियों को पिता द्वारा प्रदत्त सरनेम भी तो उसी पैतृक समाज का द्योतक है।

कानूनी तौर पर सरनेम न बदलने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है, ढेरों कागजी कार्रवाई का होना मतलब बार-बार सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाना।कई महिलाएं इस वजह से जब तक ज़रूरी न लगे तब तक अपने नाम को बदलने के बारे में नहीं सोचतीं परन्तु वहीं कई औरतें अपने नाम के साथ जुड़ी अपनी भावनाओं और अपनी पहचान को किसी कीमत पर खोने को तैयार नहीं हैं.उन्हें अपने नाम के साथ अपने माँ-बाप से जुड़े होने का अहसास होता है.इन महिलाओं का तर्क है कि, नाम के साथ उनका करियर, उनका काम, अनुभव और उनका व्यक्तित्व जुड़ा होता है, ऐसे में नाम बदलने की सोच अव्यवहारिक है.

महिलाओं के हकों की दिशा में काम करने वालों के अनुसार इस परंपरा को अपना लेने से महिलाओं को पुरुषों से हीन माने जाने के विचार को बल मिलता है. सारे बदलावों के लिए महिलाओं के ही तैयार रहने की उम्मीद क्यों? पारिवारिक ईकाई की जहाँ तक बात है, पत्नी का सरनेम पति भी अपनाकर इस रिश्ते को एक नई पहचान दे सकते हैं.

एक अध्ययन के मुताबिक ऐसी महिलाएं जो शादी के बाद अपना सरनेम नहीं बदलती, पुरुष उनके प्रति नकारात्मक भावना रखते हैं. उन्हें कम आकर्षक और खराब मां मानने के साथ ही आपसी रिश्ते में कम वफादार माना जाता है. हद तो तब हो जाती है जब सरनेम नहीं बदलने के औरतों के निर्णय को ससुराल पक्ष के लोग अपनी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान से जोड़ने लगते हैं और तो और कभी-कभी यह मुद्दा पति- पत्नी के बीच अनबन और तलाक जैसे गंभीर मसले का कारण बन जाता है.

हालांकि कुछ लोग इस मुद्दे को ज्यादा तूल देने के पक्षधर नहीं हैं. उनका तर्क है कि सरनेम से ज्यादा लगाव रखने का कोई कारण नहीं है, सरनेम का महत्व केवल अपनी पहचान को आसान बनाने तक ही रखा जाना उचित है. ज्यादा जरूरी यह है हम सरनेम के वजाय अपने व्यक्तिगत गुणों को अपनी पहचान का आधार बनाने पर बल दें.

कुछ पश्चिमी देशों में पति का स्वेच्छा से अपने सरनेम के स्थान पर अपनी पत्नी का सरनेम लगाने का भी प्रचलन बढ़ा है. कुछ मामूली कारणों मसलन अपना सरनेम पसंद न आना के अलावा समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था और लैंगिक भेदभाव को चुनौती देना भी इसका उद्देश्य है.

आधुनिक समाज में जहाँ समाज में स्त्री-पुरुष समानता को लेकर बहस छिड़ी है, नाम बदलने या न बदलने के निर्णय का अधिकार महिलाओं को दे देना क्या उचित नहीं?
















Friday 23 March 2018

क्या पूरी होगी आस?


हर शाम लालटेन के शीशे को साफ़ करना, किरोसिन भरना और जलाकर निश्चित स्थान पर रखना, कभी २ दिन कभी ७ दिन या कभी कभी एक पखवाड़े और महीने तक बिजली का इंतज़ार करना, गर्मियों में बिस्तर पर लेटकर घूमने की आस के साथ पंखे को एकटक देखकर या टीवी पर आ रहे किसी फेवरिट कार्यक्रम के बीच में बिजली के गुल हो जाने के उपरांत मन-ही-मन १०८ दफा भगवान का नाम जपना और होली,दशहरा, दीवाली या छठ जैसे कुछ पर्वों को छोड़ साल के अन्य किसी दिन शाम के वक्त बल्ब जलने को किसी उत्सव से कम न सेलिब्रेट करना☺, ऐसी तमाम यादों से सराबोर मेरा मन इस महीने बिहार में गुजारे कुछ दिनों के दौरान वहां तक़रीबन हर रोज २० घंटे की बिजली आपूर्ति को देखकर आश्चर्यचकित हुए बिना न रहा. रही-सही कसर इन्वर्टर और बैटरी पूरी कर दे रहा है। 'हर घर बिजली- लगातार ' मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा बिहार के विकास को ध्यान में रखकर किये गए सात निश्चयों में से एक निश्चय है, जिसके तहत बिहार के हरेक घर को बिजली से रोशन करने का वादा उन्होंने जनता से किया है. सौभाग्य योजना के तहत दी गयी जानकारी के मुताबिक बिहार में कुल 123.46 लाख ग्रामीण परिवार में से 58.76 लाख घरों में अबतक बिजली पहुंचाई जा सकी है जबकि 64 लाख से अधिक घर बिजली से अभी भी महरूम हैं. आशा है, नीतीश कुमार इस योजना के लक्ष्य को जल्द ही पूरा करेंगे। पटना से नालंदा जिले की तरफ जाते वक्त रास्ते के कुछ गाँवों में बिजली के खम्भे लगाने का काम होते देखकर तसल्ली हुई कि शायद अब बिहार 'लालटेन युग' से बाहर निकलने के रास्ते पर है!
भारत के अपेक्षाकृत विकसित राज्यों में दौड़ती सडकों से तुलनीय सड़कें बिहार में देखकर मन में सवाल उठा कि वाकई जनता के 'अच्छे दिन' की शुरूआत तो नहीं है ये ? कई छोटे-छोटे गाँवों के सडकों के माध्यम से बड़े शहरों से जुड़ जाने से लोगों की जीवन -शैली बदली है, व्यापार -व्यवसाय बढे हैं, आने -जाने में लगने वाले समय में बचत ने लोगों के मानसिक स्तर पर प्रभाव डाला है. सडकों पर वाहन रोककर किये जाने वाले लूट-खसोट में भारी कमी आयी है. अगर आंकड़ों की तरफ न भी झांके तब कईयों का काम निपटाकर देर रात तक बिना परवाह किये घर लौटने की हिम्मत करना इस तथ्य की पुष्टि करता है. गुजरे वो दिन जब शाम होने तक घर तक किसी अपने या परिचित के न पहुँचने की खबर पाकर दिल की धड़कनें बढ़ जाया करती थी और तब तक सामान्य न होती जब तक सकुशल पहुँचने की खबर कानों में न पड़ती थी. उस डर और दहशत से छुटकारा जनता के लिए एक बहुत बड़ी राहत कही जाएगी. पर आगे भी, एक चुस्त -दुरुस्त सुरक्षा -व्यवस्था के साथ सरकार को चौकस रहना होगा ताकि वापिस जनता के शांति के साथ जीने के अधिकार में कोई सेंध न लगा सके.

होली बिहार में मनाये जाने वाले प्रमुख त्योहारों में से एक है. समय में बदलाव के साथ अब त्योहारों की रौनक पहले जैसी नहीं होती। रंग खेलने से लेकर, पूरी-पुए, दही-बड़े, फ्राइड नमकीन खाने में भी लोग सावधानी बरतते हैं. हाँ, बच्चे हाथ में पिचकारी लिए सुबह से ही रंग-बिरंगी पिचकारी हाथ में लेकर एक -दूसरे पर रंग डालने को आतुर दिखे। पर, एक बड़ा अंतर कुछ बड़ों की होली में साफ़ दिखा। शराब के नशे में धुत लोगों का जत्था गाँव का चक्कर लगाते नहीं दिखा, दूकान की शटर गिराकर ४-५ लोगों के झुण्ड का देशी-विदेशी शराबों के साथ पार्टी करने की भी खबर या शराब के नशे में बेसुध इधर -उधर पटकाये लोगों को घर तक पहुंचाने जैसी खबरें भी अब होली का हिस्सा नहीं बनीं । कुछ मनचले लड़कों की जमात का शराब पीकर तेज गति से गाडी या बाइक चलाने और तत्पश्चात छोटी- बड़ी दुर्घटना की खबर का कानों में न पड़ना शराबबंदी कानून का सख्ती से लागू होने को प्रमाणित करता दिखा. 'शराबबंदी ' कानून के पक्ष और विपक्ष के अपने तर्क हैं, पर इस कानून ने होली और शराब की जुगलबंदी के मिथक को तोड़ने का काम किया है.

पटना में मुख्य सडकों के चारों तरफ कोचिंग क्लासेज की शत प्रतिशत सफलता की गारंटी देते बड़े- बड़े बोर्ड और पोस्टर्स और राजनीतिक दलों के आत्मप्रशंसा जैसे विज्ञापनों के अलावा सामाजिक मुद्दों के प्रति आम जनों के बीच जागरूकता फैलाते पोस्टर्स भी काफी संख्या में दिखे। कोई शिक्षा और स्वच्छता के महत्त्व को बता रहा था तो कोई बाल विवाह और दहेज़ प्रथा की बुराइयों को, कुछ लड़कियों को पढ़ाने के महत्व को. बालिका साईकिल योजना, मुख्यमंत्री पोशाक योजना और प्रोत्साहन योजना, नशाबंदी जैसे प्रावधान और गत २१ जनवरी को दहेज़ और बाल विवाह के विरोध में मानव श्रृंखला का आयोजन, सरकार का विकास के साथ सामाजिक मुद्दों पर भी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे न्याय यात्रा, विकास यात्रा, धन्यवाद यात्रा, प्रवास यात्रा, सेवा यात्रा, संकल्प यात्रा के तहत राज्य के लोगों की शिकायतें सुन चुके हैं और एक बार फिर निश्चय यात्रा की घोषणा कर सात निश्चय से सम्बंधित प्रगति की समीक्षा और जनता की शिकायतों के निपटारे का प्रयास करनेवाले हैं.

यक़ीनन नीतीश कुमार की अगुवाई में सरकार ने विकास की दिशा में सराहनीय कदम उठाये हैं. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद बेशक कुछ परिवर्तन हुए हैं। अब बिहार उपहास का विषय कम, बाकी दुनिया के लिए सुधारों के मद्देनजर कौतूहल का विषय ज्यादा बन गया है. नजरें नीतीश कुमार पर टिकी है. उम्मीदें बहुत हैं, काम भी बहुत करने हैं, सड़क, बिजली से लेकर उद्योग-धंधे लगाकर रोजगार के नए अवसर प्रदान करना, कृषि के विकास की तरफ ध्यान, भू-पुनर्विभाजन, शिक्षा और चिकित्सा के स्तर में सुधार जैसे कई वादे हैं, जिन्हें जल्द -से- जल्द पूरा करने की जिम्मेवारी नीतीश कुमार के कंधे पर है. आजादी मिलने के सत्तर साल बाद भी ३८ में से १७ जिलों में हर १ लाख लोगों पर अधिकतम ३ चिकित्सक का होना WHO द्वारा निर्धारित १:१००० के मापदंड के हिसाब से अत्यंत शर्मनाक है . शिेक्षा के क्षेत्र की भी हालत दयनीय है, विद्यार्थी और शिक्षक का अनुपात जहाँ प्राथमिक शिक्षा में ३०:१ तथा उच्च प्राथमिक वर्ग में ३५:१ निश्चित की गयी है, वहीँ बिहार में क्रमशः यह अनुपात ४३:१ और ९६:१ है.

हालांकि विकास की गति को लेकर जनता खुश नहीं दिखती। शुरूआती वर्षों में जिस तेजी से प्रगति को महसूस किया गया, वह अब नदारद है. आम जनता की तकलीफों और चिंताओं से इतर महज अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने एवं राजनीतिक दलों के वर्ग और जाति जैसे फालतू मुद्दों में उलझ कर विकास और प्रगति को दरकिनार करने का डर बिहार की जनता के जेहन में है.

राजगीर स्थित शांति स्तूप के दर्शन को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से लगाए गए रोपवे सेवा का संचालन को संभालते कर्मचारियों द्वारा एक युवती को निर्धारित रास्ते से पंक्ति में आने के निर्देश दिए जाने के बाद उस महिला का बेवजह उनसे वाद-विवाद करते देख मन विचलित हुआ। जरूरत है, हमें खुद को सुधारने की. जब हम सुधरेंगे, तब बिहार सुधरेगा।

Thursday 22 February 2018

सफर कुछ अलग-सा


कागज की नाव बनाकर उसे बारिश के पानी में छोडना और तेजी से ओझल होते देखना मन में जैसी ख़ुशी का संचार करता था, वैसी ख़ुशी मोटर बोट खिलौने में कहाँ मिलती थी  ? कुछ ऐसे ही उम्मीदों के साथ पिछले रविवार हमने सेलिंग बोट की  राइड लेने की योजना बनाई. पहले से निर्धारित समय पर हमलोग गेटवे ऑफ़ इंडिया से सटे  जेटी नंबर ५ पर पहुँच गए. वहां से हमें ट्रांसफर बोट के माध्यम से सेलिंग बोट तक ले जाया गया.  सेलिंग बोट को किनारे तक लाने की अनुमति नहीं है. जाते -जाते हमें कई अन्य सेलिंग बोट, छोटे- बड़े मोटर बोट और प्राइवेट याच भी दिखाई दे रहे थे, कुछ पर्यटकों को ले जाते और कुछ समुन्दर के किनारे एंकर के सहारे पार्क किये हुए और हवा के संग-संग, आगे -पीछे हिलते- डुलते अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते. एलीफैंटा की गुफाओं और अलीबाग बीच भी यहाँ से जाया जा सकता है.
अब हमलोग  तैयार थे, अरब सागर के नीले पानी की अनोखी दुनिया को करीब से महसूस करने के लिए और इस छोटी मगर यादगार यात्रा को सफल बनाया नाव के चालक और उनके एक सहयोगी ने. चंद मिनट ही  काफी थे यह समझने में कि नाव को चलाने में कितने धैर्य और अनुभव की दरकार होती है !खड़े नावों या जहाजों के बीच से नाव के लिए रास्ता बनाना, नावों की दिशा बदलना या हवा का रूख समझ कर सेल को एक तरफ से दूसरी तरफ करना आसान काम नहीं है!
इंजीनियरिंग की सबसे पुरानी शाखा है, नौका निर्माण। हल्ल या पतवार, बड़ा-सा सेल, सेल और बूम को थामे एक बड़ा सा डंडा या मास्ट, नाव को  दिशा देने केलिए ट्रिलर, चप्पू, रस्सियां इत्यादि नाव के कुछ मुख्य भाग   हैं.
 हवा अच्छी चल रही थी और  उसके सहारे नाव भी अच्छी गति से आगे बढ़ी जा रही थी। दूर सागर और आसमान आपस में एक दूसरे में समाते हुए दिख रहे थे,जानते हुए भी यह एक भ्रम है,एकबारगी सच प्रतीत हो रहा था. नाविक ने बताया, जब हवा कम रहती है तब नाव इतनी तेजी से आगे नहीं बढती, और भी कम होने पर चप्पू चलाकर नाव को खेना पड़ता है, जो काफी मेहनत भरा काम है.  कभी- कभी  हवा के न रहने पर नाव के कहीं बीच में भी फँस जाने का डर रहता है, तब अन्य उपाय करने पड़ते हैं. डरने की बात नहीं,ऐसा बहुत कम ही होता है.☺ पर हाँ, डाल्फिन के दर्शन के मामले में किस्मत ने हमारा साथ नहीं दिया। सी गल और अन्य पक्षी अपना आहार ढूंढते और मछलियों का पीछा करते जरूर दिखे, और पानी में जगह-जगह तैरते नावों के लिए लगाए गए मार्कर पर कुछ पक्षियों को  आराम फरमाते और उड़ना छोड़ उनके सहारे ही किनारे का रूख करते देखना मजेदार लगा.
नाविक और उनके सहयोगी ने हमारे द्वारा पूछे गए लगभग सभी सवालों के जवाब दिए. सफर के दौरान दिखाई देते सभी नेवी के जहाज, ऑयल वेल, नेवी अधिकृत द्वीपों, लाइट हॉउस, इंडियन नेवी द्वारा एक जहाज को रेस्टोरेंट के रूप में परिवर्तित करने के बारे में भी हमें बताया। चलते-चलते हमलोग एक फिशिंग बोट  के करीब पहुंचे। उन्होंने बताया कि कुछ लोग रोज शाम फिशिंग बोट से मछलियों को पकड़ने के अपने अभियान पर निकलते हैं और सुबह-सुबह पकड़ी मछलियों को तट पर दिख रहे सेसॉन डॉक पर पहुंचा देने के बाद इनका काम खत्म होता है . फिशिंग बोट पर कोली समुदाय की आराध्य देवी, मुम्बा आई का भी झंडा लगा दिखा। ज्यादातर कोली समुदाय के लोग इस धंधे से जुड़े हैं.

हवा के रूख को देखते हुए सेल को बाईं या दाई और करना पड़ता है और इस बाबत नाविक के निर्देश मिलने पर नाव में सवार हमें कई दफा सर झुकाना पड़ा. यह थोड़ी असुविधाजनक लग सकती है पर यदि सेलिंग बोट पर बैठकर समुद्र की खूबसूरती का मजा लेना है, तब अलर्ट रहना भी उतना ही जरूरी है!

प्राचीनकाल से लोग सागर की यात्रा करने और इसके रहस्यों को जानने की कोशिश में लगे हुए हैं. जल जंतुओं की एक रहस्यमयी दुनिया, ब्लू व्हेल से लेकर प्लैंकटन तक. पता नहीं और कितने अद्भुत जीव-जंतु, दुर्लभ पौधे और भांति -भांति के बैक्टीरिया इन महासागरों के गर्भ में मौजूद हैं!

कितनी सारे रोमांचक किस्सों को याद दिलाता है यह दूर तक फैला नीले पानी का अम्बार! दूर से आते जहाज के मास्ट के ही हमेशा सबसे पहले देखे जाने के बाद ही इंसानों ने सोचना शुरू किया कि कहीं दुनिया समतल न होकर गोल तो नहीं ! सिंदबाद की रोमांचक कहानियाँ हो या अर्नेस्ट शैकलटन की सन १९०७ की साहसिक नीमरोड अभियान की साहस से भरी सच्ची घटना, समुद्र के बीच में जिंदगी और मौत के बीच गुजारे गए कई दिन, सब ऐसे ही किसी सागर से ही तो जुडी है. वास्कोडिगामा, कोलंबस, मार्को पोलो की समुद्री यात्राओं के बारे में किसने न सुना होगा? विभिन्न सभ्यता-संस्कृतियों को जानने -समझने से लेकर उपनिवेशों की स्थापना के किस्से इन यात्राओं से जुड़े हैं.

हमने शाम का वक्त यात्रा के लिये चुना था ताकि सनसेट का भी नज़ारा देख सकें।  हमारी नाव वापस लौटने के लिए मुड़ चुकी थी. नीले पानी पर सूरज की किरणों से बनी सुनहरी पट्टियों हमारे नाव का पीछा करती दिख रही थी. प्रकृति के इस अद्भुत रंग-संयोजन का कोई मुकाबला है क्या? हम मुंबई के करीब पहुँच रहे थे, इमारतें कुछ ज्यादा स्पष्ट दिखाई देने लगी थी. और देखते ही देखते सूरज भी चल पड़ा था धरती के दूसरे हिस्से को प्रकाशमान करने और हम २ घंटे की थोड़ी अलग और यादगार यात्रा कर वापस अपनी राह!

Sunday 18 February 2018

हँसी पर पहरा

अभी कुछ दिन पहले एक हँसी या कहें एक जोरदार ठहाके की गूंज सबने सुनी. हुआ यूँ कि राज्य सभा में देश के प्रधानमंत्री के एक वक्तव्य सुनकर विपक्षी पार्टी की सांसद रेणुका चौधरी अपनी हंसी रोक नहीं पाईं. हालांकि कुछ साल पहले उनके फफक -फफक कर रोने की भी घटना चर्चा में रही थी. खैर, जहाँ प्रधानमंत्रीजी की हाजिरजवाबी को कुछ लोगों ने खूब सराहा वहीँ उन्हें इस घटना को रामायण की कहानी से जोड़ने पर आलोचनओं का शिकार भी होना पड़ा. एक तरफ सत्ता पक्ष के सदस्यों ने मोदीजी  का जोरदार समर्थन किया और दूसरी ओर विपक्षी पार्टी ने उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दे डाली.
पर  इस घटना ने बहुत धीमी ही आवाज में ही सही पर एक जरूरी मुद्दा उठाया जिसे औरतों के 'राइट टू हैप्पीनेस' से जोड़कर देखा जा सकता है.
प्रकृति ने हमें 'हँसी' जैसी एक अचूक औषधि से नवाजा है, हँसने से रक्त-संचार बढ़ता है और शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी बढती है. मानसिक तनाव घटाने के साथ -साथ सकारात्मक सोच बढ़ाने के लिए भी हॅसने को प्रेरित किया जाता है. सीधे-सादे शब्दों में, एक खुशहाल और तनावमुक्त जिंदगी की एक महत्वपूर्ण शर्त है, हँसने को न भूलना।
इंसान जब खुश होता है तब हँसता है, मन में अचानक आया कोई खुशनुमा ख्याल हो या अपनों से मुलाकात या बातचीत, या बस खेलने के उमंग को हँसकर अथवा मुस्कुराकर इजहार करता है. हँसी को संक्रामक भी माना जाता है, एक हँसता हुआ चेहरा बहुतों को हँसाने में कामयाब होता है, दिलों को जोड़ता है, और  कईयों को अपनी तरफ आकर्षित भी करता है. निसंदेह हँसने के भी अपने नियम-कानून हैं और यह सही भी है. पर कई दफा लड़कियों के लिए ये नियम कुछ ज्यादा ही सख्त दिखाई पड़ते हैं. लड़कियों के हँसने और मुस्कुराने को लेकर बेवजह रोक-टोक की जाती है. लड़कियों यहाँ भी भेद-भाव का शिकार होती हैं. आँचल में मुंह छिपाकर या   मुंह दबाकर ही हँसने को ही शिष्टाचार समझा जाता है. हँसने-मुस्कुराने के तरीके पर तंज कस उच्श्रृंखल होने जैसे तोहमत लगा दिए जाते हैं. तहजीब और शिष्टाचार के नाम पर असल में जब  पाबंदियां 'लड़की होने के कारण लगती है ' तब मन का आहत होना लाजिमी है. यह बिना गुनाह किये दोषी ठहराने सरीखा  है और एक सीमा से ज्यादा रोक-टोक से लड़कियों के मन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
क्या समय नहीं आया है कि औरतों की हँसी पर लगा पहरा हटाया जाए एवं हर चेहरे पर एक जैसी   और खिलखिलाती हँसी को खुशहाल भारत का प्रतीक बनाया जाये?



Tuesday 13 February 2018

मुख्यमंत्रीजी का आगमन


कुछ दिन पहले लाउडस्पीकर से की जा रही एक घोषणा सुनाई दी. आवाज स्पष्ट न थी, पर अनुमान लगा कि शायद किसी राज्य के मुख्यमंत्री यहाँ किसी गार्डन में आम जनता को सम्बोधित करने वाले हैं. अक्सर ऐसा होता है, वर्तमान की कोई घटना, कुछ आवाजें या बस कोई खुशबू सहसा ही हमें अतीत की कुछेक घटनाओं की याद दिलाती है और सबकुछ चलचित्र की भांति हमारे सामने घूम जाता है.

करीब २२-२३ वर्ष पहले मिली ऐसी ही एक खबर पर अनायास ही ध्यान चला गया.. सूचना के मुताबिक राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्रीजी की हमारे गांव में पधारने की योजना बनी थी. सूचना मिलने के कुछ ही दिनों के अंतराल में निरीक्षण के लिए आये-दिन आने वाली  सरकारी अफसरों  की गाड़ियों ने इस समाचार को बिलकुल पुख्ता ही कर दिया था. चारों तरफ इसी की चर्चा थी. दूसरे अन्य गाँवों तक खबर फैलते देर न लगी. गांव का इतिहास खंगाला जाने लगा कि कब अंतिम दफा यहाँ ऐसे ही किसी अन्यमहापुरुष के चरण यहाँ की धरती पर पड़े हों! दिन नजदीक आते ही निर्धारित स्थान पर बॉस बल्लों का ढेर लग गया. मंच, जिस पर खड़े होकर मुख्यमंत्रीजी आम जन को सम्बोधित करने वाले थे, का ढांचा तैयार हुआ, VIP अतिथियों के लिए विशेष व्यवस्थायें की जा रही थी.  जैसे- जैसे समय नजदीक आ रहा था, सम्पूर्ण इलाके में उत्सव जैसा माहौल छाने लगा था . ऊपर से मुख्यमंत्री महोदय के हेलीकॉप्टर से आने की सूचना से  तो लोगों की उत्सुकता और बढ़ गयी थी. युद्धस्तर पर एक हेलिपैड बनने का काम भी शुरू हो चला था। सुनने में आया कि इंतज़ाम के लिए मिली राशि का भारी दुरूपयोग भी हुआ, पर बेशक ज्यादातर लोग निस्वार्थभाव से ही मुख्यमंत्री के आने का इंतज़ार कर रहे थे ☺. दूर -दराज इलाकों से भारी संख्या में लोग भी आकर मुआयना करने पहुँचने लगे।  अंदाजा होने लगा था की उस दिन मेले जैसी भीड़ जुटने वाली है और हुआ भी वैसा ही, बड़े बूढ़ों का कहना था कि ऐसी भीड़ इस गांव में कभी न देखी थी! विजयादशमी के मेले में भी इतनी भीड़ कभी न जुटी थी.

  अब जब ऐसा सुअवसर आ ही रहा था तब हमारे विद्यालय के शिक्षकों ने मिलकर भी बहती गंगा में हाथ धोने का निर्णय ले लिया कि वर्षों से उपेक्षित पड़े इस विद्यालय की सारी समस्याओं को एक चिट्ठी में लिखकर मुख्यमंत्री जी को सौंप देंगे. वैसे भी, चरवाहा विद्यालय की स्थापना करके शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाकर  दुनिया भर को हैरान करने वाले के समक्ष इन छोटी-मोटी समस्याओं  की क्या बिसात ?अब काहे की देर, लग गया पूरा विद्यालय बढ़िया से बढ़िया कंटेंट वाली चिट्ठी लिखने में. २-३ दिन के अंदर एक लम्बा- सा शिकायती पत्र भी बना लिया गया.  टूटी हुई छप्परों, बेंचों की कमी , प्रयोगशाला और पुस्तकालय  का अभाव, पीने का पानी और शौचालय के न होने से उत्पन्न परेशानियों का उल्लेख कर, दया-दृष्टि फेरने का आग्रह कर दिया गया. भव्य स्वागत के लिए एक स्वागत गान  गाने की योजना बनी. बस, सारा स्कूल तैयारी में जुट गया. कई स्वागत गानों में से एक स्वागत  गान का चुनाव किया गया और धुआंधार प्रैक्टिस शुरू हो गई। साथ ही, रोज पत्र का आकलन भी किया जाता, कुछ शिकायतें काटी जाती, कुछ जोड़ी जाती। महामहिम के आतिथ्य-सत्कार में कोई कमी न रह जाए, इस पर पूरा ध्यान दिया जा रहा था☺ हालिया सर्वेक्षण के हिसाब से शिक्षा के स्तर में गिरावट के समाचार मिले हैं, और कितनी गिरावट, अंदाज लगाना मुश्किल है.
खैर, जैसे राम का स्पर्श पा देवी अहिल्या वर्षों के श्राप से मुक्त हो पायी थी, वैसे ही कुछ चमत्कार की आशा बांधे हमसब उस पावन दिन का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे.
आ ही गया वो दिन। एक-डेढ़ घंटे के ही बिलम्व के बाद ही हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट ने दूर से ही उनके आने की सूचना दी और लोगों का हुजुम उनकी जय-जयकार करते दौड़ पड़ा मुख्मंत्रीजी की झलक पाने।
तेज कदमों के साथ अपने सहयोगियों से घिरे मुख्यमंत्री महोदय जी मंच पर पहुंचे। माला वगैरह पहनने की औपचारिकताओं के पश्चात स्वागत गान के साथ उनका स्वागत किया गया. तत्पश्चात बारी आई, कई दिनों की मेहनत के बाद लिखेहुए शिकायती पत्र उनके हाथों में थमा देने की. उनके एक सहयोगी ने अपने हाथ में लेकर पत्र के साथ-साथ हमारी आशाओं को भी कहीं बगल में सरका दिया था. किन बातों को कितनी गम्भीरता से ली जाए, इतनी समझ बच्चों में कहाँ ? तमाम औपचारिकताओं की सम्पन्नता के बाद मुख्यमंत्रीजी ने चिरपरिचित अंदाज में बोलना शुरू किया. हमारी समझ से परे मगर लोटपोट कर देने वाला भाषण था, ढेर सारी  तालियां मिली, खूब मनोरंजन हुआ। मंच पर एक व्यक्ति को इशारे से बुलाकर उसकी पसलियां गिनने लगे, लगा कि अपनी पैनी नजर से उस बेचारे गरीब के सारे दुख दर्द ताड़ गए हों! कुछ उम्मीदें बंधाई, कुछ  वादे किये।अब समय हो चला था, अपने हेलीकॉप्टर में बैठ कर चल पड़े किसी और सभा को सम्बोधित करने ..






Saturday 3 February 2018

थिएटर :एक छोटी चर्चा



मुंबई की शान है सिनेमा और इसमें थिएटर को भी जोड़ दें, तब कोई अतिशयोक्ति न होगी। हाँ,थिएटर सिनेमा जैसा लोकप्रिय नहीं। जबकि कई लोगों का मानना है कि उस समय चल रहे थिएटरों ने ही मुंबई में सिनेमा जगत की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 आज भले थिएटर की चमक फीकी पड़ी है, परन्तु आजादी के लिए लोगों के मन में उद्वेलित करने से लेकर वर्तमान सामजिक -राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न कर लोगों को जागरूक बनाने में इनके योगदान को कम नहीं आँका जा सकता. कभी गंभीरता से या कभी हलके फुल्के अंदाज में, कभी धारदार व्यंग्य के रूप में मंचित नाटकों द्वारा जिंदगी के हर पहलू की विवेचना की जा सकती है. सम-सामायिक मुद्दों, रिश्तों की जटिलता, आपसी द्वन्द, आम लोगों की शंकाएं तथा सामाजिक कुरीतियों को नाटकों के जरिये पेश किया जाता है. कभी-कभी तो थिएटर महज ज़िन्दगी के किस्से को ही दिखाने में सक्षम नहीं होता वरन कई सवाल उठाकर हमें सोचने पर मजबूर करता है. एक ऐसा ही उदहारण है, चेकोस्लोवाकिया के नाटककार 'कारेल कापेक' द्वारा लिखे नाटक 'रोसम्स यूनिवर्सल रोबोट्स' में सर्वप्रथम इस्तेमाल किया गया रोबोट शब्द, वर्तमान दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण देन कही जायेगी।  

विगत रविवार को मुंबई स्थित हरकत स्टूडियो में पञ्चतन्त्र नाटक का मंचन हुआ. पंचतंत्र की  दो प्रसिद्ध कहानियाँ, रंगा सियार तथा बन्दर और मगरमच्छ की दोस्ती, मंचन के लिए चुनी गयी थीं. पढ़ी हुई कहानियों को  नाटक के रूप मे देखने की कल्पना एक अलग ही उत्सुकता  जगाती है ! नाटक के शुरुआत में ढोलक और हारमोनियम पर बैठे कलाकारों की तीखी नोक-झोक ने सबको गुदगुदाया। मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों को इस माहौल में सहज होने में सहायता मिली. नोक-झोक के दौरान ही हमें पंचतंत्र के पांच अध्यायों से  अवगत कराया गया. वे हैं , मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव),मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ),काकोलुकीयम् (कौवे एवं उल्लुओं की कथा ),लब्धप्रणाश (मृत्यु या विनाश के आने पर; यदि जान पर आ बने तो क्या?) एवं अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें; हड़बड़ी में क़दम न उठायें) . मूल रूप से संस्कृत में लिखी गयी और बाद में विश्व की लगभग हर भाषा में अनुवादित इन कथाओं के द्वारा हमें मनोविज्ञान, व्यावहारिकता और राजनीतिके सिद्धांतोका परिचय होता है. ८७ कहानियों के माध्यम से इस ग्रन्थ के रचयिता पं॰ विष्णु शर्मा  जी ने मानव समाज को उचित-अनुचित का ज्ञान दिया है. 

 जानवरों  का अभिनय करना एक चुनौती भरा काम है, जिसे सफल बनाया रुपेश टिल्लू के निर्देशन और चार अन्य कलाकारों के दमदार अभिनय ने.  कहानियों के प्रदर्शन के बीच में हारमोनियम और ढोलक से उठती आवाजों  ने इन कथाओं को मंच पर जीवंत करने में शानदार भूमिका निभाई। कलाकारों का  गीदड़, हाथी, शेर, बन्दर और कभी मगरमच्छ बनकर तरह- तरह की आवाजें निकालना, गुस्सा, घमंड, भय, ईर्ष्या, लालच, आश्चर्य जैसे भावों को शारीरिक मुद्राएं बनाकर दर्शाना, उछलना -कूदना, भागना जैसी सहज प्रस्तुति  दर्शकों को बांधने में कामयाब रही. हालांकि नाटक के मंचन के दौरान कई बार मुझे महसूस हुआ कि इस नाटक को केवल बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं लिखा गया था. तथापि नाटक  के बीच-बीच में तालियों की गड़गड़ाहट और बच्चों की जोरदार हँसी सुनकर तसल्ली हुई  कि कम -से -कम  कलाकारों के सहज अभिनय ने सबका भरपूर मनोरंजन किया. खासकर नाटक के अंत में  होली के  गाये गए गीत और संगीत वाद्यों की मनमोहक आवाजों ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया।    
वर्तमान समय में बॉलीवुड की चमक -धमक के आगे भले ही रंगमंचों की चमक फीकी लगे,पर थिएटर जगत के लोग इसके भविष्य को लेकर आशावान हैं एवं दर्शकों को अपनी ओर खींच लाने की कोाशिश में लगे हैं. मनोरंजन की दृष्टि के अलावा शिक्षा की दृष्टि से भी रंगमंच की उपयोगिता को लेकर बहसें हो रही है. नाटकों में नए-नए  प्रयोग कर दुनिया भर में इस माध्यम को लोकप्रिय बनाने की कवायद जारी है, ताकि रंगमंच  उच्च मध्यमवर्गीय या बड़े शहरों में न सिमट कर आम जनता और छोटे -छोटे शहरों तक अपनी पैठ बनाने में कामयाब हो.

Saturday 27 January 2018

साउथ मुंबई की वाकिंग ट्रिप


 साउथ मुंबई की वाकिंग ट्रिप 

गेटवे ऑफ़ इंडिया, टाउन हॉल, टेलीग्राफ ऑफिस,सिद्धि विनायक मंदिर, राजाभाई क्लॉक टावर , मणि भवन, अगस्त क्रांति मैदान, हाजी अली दरगाह, माउंट मैरी चर्च, मरीन ड्राइव, फिल्मसिटी, ग्लोबल विपासना पगोडा आदि मुंबई में कई  ऐसी जगहें हैं, जिसे देखने भारी संख्या में लोग दूर -दूर से पहुंचते हैं.  पर, यहाँ के बाजारों की भीड़-भाड़, चहल -पहल और शोर-गुल को देखे बिना मुंबई को समझना मुश्किल है. बस, मुंबई के इस महत्वपूर्ण हिस्से को देखने की योजना हमने भी बना डाली और एक ट्रैवल एजेंसी की मदद से निकल पड़े उन गलियों और बाजारों को छानने। कई विकल्पों में से हमने क्रॉफर्ड मार्केट, झवेरी बाजार, मंगलदास मार्केट, फ्लॉवर्स मार्केट और पिंजरापोल गोशाला वाली वाकिंग ट्रिप का चुनाव किया। हाँ, २६ जनवरी  की वजह से काफी दुकानें बंद मिली और गाइड के कहेनुसार वह भीड़ नहीं दिखी जो अमूमन यहाँ रहती है. यह हमारे लिए राहत की बात भी थी और अफसोस की भी। उस नज़ारे को देखने से हम चूक गए जो यहाँ को खास बनाती है. बहरहाल, उस दिन की भीड़ देखकर अन्य सामान्य दिनों की व्यस्तता के बारे में अंदाजा लग गया! शादी और अन्य त्योहारों के वक्त की भीड़-भाड़ की कल्पनामात्र से ही घबराहट होने लगी! 

इस ट्रिप में हमारे साथ थीं, दो कनाडा से आई महिलायें और दो ऑस्ट्रेलियाई महिलायें। रीगल  सिनेमा के सामने से शुरू हुआ हमारा सफर. पहला पड़ाव, क्राफर्ड मार्किट तक हमें टैक्सी से ले जाया  गया. रास्ते में जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट और सी एस टी देखने को मिला।  गाइड ने हमें बताया कि वी टी स्टेशन, जिसका नाम बदलकर अब सी एस टी कर दिया गया है , के बाहर महारानी विक्टोरिया  की प्रतिमा स्थापित थी जिसे वापिस लंदन भेज दिया गया है जो अब वहां किसी संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है.

अब हम पहुंचे, क्रॉफर्ड मार्केट। विशेष रूप से फलों,सब्जियों, मांस-मछली, ड्राई फ्रूट, मसालों के होलसेल और रिटेल बाजार  के तौर पर जाने जाने वाले इस मार्केट में  प्लास्टिक के सामान, कपडे, खिलौनों की भी दुकानें  दिखीं। दुकानों के दिखाने के क्रम में गाइड ने बारगेन यानि मोलजोल करने की कला के बारे में हमें विस्तार से बताया☺.  क्रॉफर्ड मार्किट का नामकरण मुंबई शहर के पहले  म्युनिसिपल कमिश्नर 'आर्थर क्रॉफर्ड' के नाम पर किया गया था जिसे सन १९९५ में शिवसेना द्वारा नामों के बदलने के राज्यव्यापी अभियान के तहत महात्मा ज्योतिबा फूले  कर दिया गया है. हालांकि लोगों की जुबान पर अभी भी यही नाम चढ़ा है. कई बातें १८६९ में निर्मित क्राफर्ड मार्केट को विशेष बनाती है जैसे मार्केट में अवस्थित एक फाउंटेन जो प्रसिद्ध कलाकार जॉन लॉकवुड किपलिंग और  प्रसिद्ध लेखक रुडयार्ड किपलिंग  ( द  जंगल बुक के लेखक)के पिता द्वारा निर्मित है।  हालांकि, फाउंटेन बहुत अच्छी हालत में नहीं दिखा, जाहिर है इसके रख- रखाव पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया गया है. इसके अलावा यह जानकर भी हैरत हुई कि भारत में विद्युतीकरण के आगाज के लिए भी इसी बाजार को चुना गया था. जी हाँ, सन  १८८२ में भारत की यही इमारत सर्वप्रथम बिजली से रौशन हुई.

इसके बाद हमने रूख किया मंगलदास मार्केट यानि फैब्रिक मार्केट की तरफ. परन्तु छुट्टी की वजह से अधिकतर दुकानें  बंद मिली। कपड़ों की विभिन्न किस्मों की सस्ते दामों में उपलब्धता के लिए विख्यात यह बाज़ार लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. हम तो चूक गए, फिर कभी..

हाँ , झवेरी बाज़ार की तरफ जाने वाली सड़क के दोनों तरफ बैठकर दूकान लगाने वाले विक्रेता ग्राहकों के साथ व्यस्त  दिखे. खरीदने वालों की भी अच्छी खासी भीड़ दिखी. गाइड ने बताया कि दुकानदारों की कमाई अच्छी -खासी है और ये टैक्स भी भरते हैं।  सब कुछ प्रशासन की मंजूरी से है, शायद मुंबई की इस अनूठी वाइब को कायम रख लेने की कवायद का हिस्सा है ये । मॉल की नयी नवेली संस्कृति को झूठलाती इस मार्किट की चहल पहल थोड़ी अचंभित ही करती है.

झवेरी बाजार हमारा अगला पड़ाव था. यह बाजार जैसा नाम से ही विदित है, सोने चांदी एवं हीरों  के आभूषणों के लिए मशहूर है.  इसके अलावा इमिटेशन जूलरी और रत्नों और कीमती पत्थरों की भी खरीददारी यहाँ से की जा सकती है.  इस बाजार की महत्ता इस आंकड़ें से मापी जा सकती है कि भारत में हो रहे सोने के कुल कारोबार के ६५ प्रतिशत कारोबार के लिए यहाँ अवस्थित सैंकड़ों दुकानें ही जिम्मेदार हैं.  हर कुछ अंतराल पर  हमें गुजराती समाज की व्यापार कुशलता  के बारे में गाइड के माध्यम से जानकारी मिलती रही☺ बात सही भी है, प्रत्यक्षं  किं प्रमाणम।

इसके बाद हमने जामा मस्जिद और मुम्बा आई मंदिर को बाहर से देखा. . सड़क के एक छोर पर मस्जिद और दूसरे छोर पर मंदिर भारत के सांप्रदायिक विविधता को दर्शाता दिखा. ब्रिटिश शासकों ने शहर के विस्तार के मद्देनजर  वी टी स्टेशन के पास से हटाकर मुम्बा आई मंदिर को झवेरी बाजार के पास पुनर्स्थापित किया.  मुंबई के मूल निवासी, कोली समाज की आराध्य देवी हैं, मुम्बा माता। मुंबई शहर का नामकरण भी इन्हीं देवी के नाम पर किया गया है. मंदिर में प्रतिदिन छह बार आरती होती है। मंगलवार के शुभ माने जाने के कारण श्रद्धालुुओं की काफी भीड़ रहती है. मन्नत माँगने के लिए लोग यहाँ रखे लकड़ी पर सिक्कों को कीलों से ठोंकते हैं.

फ्लावर्स मार्किट हमारा अगला पड़ाव था. यूँ कहिये एक पतली सी गली. दोनों तरफ फूलों  से सजे स्टॉल और  लकड़ी की तख्तों पर बैठकर माला गूंथते लोग दिखे. फूलों की कई किस्मों के अलावा पूजा में प्रयुक्त होने वाले अन्य सामानों को भी यहाँ से ख़रीदा जा सकता है यथा तुलसी, आम के पत्ते, दूब, उपले आदि. हालाँकि दादर का फ्लावर मार्केट मुंबई की सबसे बड़ी फ्लावर मंडी है। पर, सुबह के वक्त इस बाजार में भी काफी रौनक रहती है.
फूलों की गली होते हुए हम पहुंचे हमारे अंतिम पड़ाव पर, पिंजरापोाल  गौशाला। हिन्दू धर्म में, गोसेवा की महत्ता से  सभी परिचित हैं. सड़कों पर खुले में विचरती और कचरा खाती गायों से इतर अच्छी तरह से देखभाल पा रही इन गायों को देखना सुखद अहसास रहा. सभी ने बड़े प्यार से गायों को चारा खिलाया।  कुछ लोग कबूतरों को दाना खिलाते भी दिखे. यहाँ की ३५० गायों की देखभाल के लिए चंदा देनेवालों की कमी नहीं।

मुंबई के इस हिस्से को देखकर शहर के अलग रूप से वाकिफ होना अच्छी अनुभूति रही. महज २ घंटे का यह ट्रिप  इस महानगर से संबंधित कई ऐतिहासिक और वर्तमान के व्यापारिक गतिविधियों के बारे में ज्ञानवर्धन करने वाला  साबित हुआ.