अभी कुछ दिन पहले एक हँसी या कहें एक जोरदार ठहाके की गूंज सबने सुनी. हुआ यूँ कि राज्य सभा में देश के प्रधानमंत्री के एक वक्तव्य सुनकर विपक्षी पार्टी की सांसद रेणुका चौधरी अपनी हंसी रोक नहीं पाईं. हालांकि कुछ साल पहले उनके फफक -फफक कर रोने की भी घटना चर्चा में रही थी. खैर, जहाँ प्रधानमंत्रीजी की हाजिरजवाबी को कुछ लोगों ने खूब सराहा वहीँ उन्हें इस घटना को रामायण की कहानी से जोड़ने पर आलोचनओं का शिकार भी होना पड़ा. एक तरफ सत्ता पक्ष के सदस्यों ने मोदीजी का जोरदार समर्थन किया और दूसरी ओर विपक्षी पार्टी ने उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दे डाली.
पर इस घटना ने बहुत धीमी ही आवाज में ही सही पर एक जरूरी मुद्दा उठाया जिसे औरतों के 'राइट टू हैप्पीनेस' से जोड़कर देखा जा सकता है.
प्रकृति ने हमें 'हँसी' जैसी एक अचूक औषधि से नवाजा है, हँसने से रक्त-संचार बढ़ता है और शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी बढती है. मानसिक तनाव घटाने के साथ -साथ सकारात्मक सोच बढ़ाने के लिए भी हॅसने को प्रेरित किया जाता है. सीधे-सादे शब्दों में, एक खुशहाल और तनावमुक्त जिंदगी की एक महत्वपूर्ण शर्त है, हँसने को न भूलना।
इंसान जब खुश होता है तब हँसता है, मन में अचानक आया कोई खुशनुमा ख्याल हो या अपनों से मुलाकात या बातचीत, या बस खेलने के उमंग को हँसकर अथवा मुस्कुराकर इजहार करता है. हँसी को संक्रामक भी माना जाता है, एक हँसता हुआ चेहरा बहुतों को हँसाने में कामयाब होता है, दिलों को जोड़ता है, और कईयों को अपनी तरफ आकर्षित भी करता है. निसंदेह हँसने के भी अपने नियम-कानून हैं और यह सही भी है. पर कई दफा लड़कियों के लिए ये नियम कुछ ज्यादा ही सख्त दिखाई पड़ते हैं. लड़कियों के हँसने और मुस्कुराने को लेकर बेवजह रोक-टोक की जाती है. लड़कियों यहाँ भी भेद-भाव का शिकार होती हैं. आँचल में मुंह छिपाकर या मुंह दबाकर ही हँसने को ही शिष्टाचार समझा जाता है. हँसने-मुस्कुराने के तरीके पर तंज कस उच्श्रृंखल होने जैसे तोहमत लगा दिए जाते हैं. तहजीब और शिष्टाचार के नाम पर असल में जब पाबंदियां 'लड़की होने के कारण लगती है ' तब मन का आहत होना लाजिमी है. यह बिना गुनाह किये दोषी ठहराने सरीखा है और एक सीमा से ज्यादा रोक-टोक से लड़कियों के मन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
क्या समय नहीं आया है कि औरतों की हँसी पर लगा पहरा हटाया जाए एवं हर चेहरे पर एक जैसी और खिलखिलाती हँसी को खुशहाल भारत का प्रतीक बनाया जाये?
पर इस घटना ने बहुत धीमी ही आवाज में ही सही पर एक जरूरी मुद्दा उठाया जिसे औरतों के 'राइट टू हैप्पीनेस' से जोड़कर देखा जा सकता है.
प्रकृति ने हमें 'हँसी' जैसी एक अचूक औषधि से नवाजा है, हँसने से रक्त-संचार बढ़ता है और शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी बढती है. मानसिक तनाव घटाने के साथ -साथ सकारात्मक सोच बढ़ाने के लिए भी हॅसने को प्रेरित किया जाता है. सीधे-सादे शब्दों में, एक खुशहाल और तनावमुक्त जिंदगी की एक महत्वपूर्ण शर्त है, हँसने को न भूलना।
इंसान जब खुश होता है तब हँसता है, मन में अचानक आया कोई खुशनुमा ख्याल हो या अपनों से मुलाकात या बातचीत, या बस खेलने के उमंग को हँसकर अथवा मुस्कुराकर इजहार करता है. हँसी को संक्रामक भी माना जाता है, एक हँसता हुआ चेहरा बहुतों को हँसाने में कामयाब होता है, दिलों को जोड़ता है, और कईयों को अपनी तरफ आकर्षित भी करता है. निसंदेह हँसने के भी अपने नियम-कानून हैं और यह सही भी है. पर कई दफा लड़कियों के लिए ये नियम कुछ ज्यादा ही सख्त दिखाई पड़ते हैं. लड़कियों के हँसने और मुस्कुराने को लेकर बेवजह रोक-टोक की जाती है. लड़कियों यहाँ भी भेद-भाव का शिकार होती हैं. आँचल में मुंह छिपाकर या मुंह दबाकर ही हँसने को ही शिष्टाचार समझा जाता है. हँसने-मुस्कुराने के तरीके पर तंज कस उच्श्रृंखल होने जैसे तोहमत लगा दिए जाते हैं. तहजीब और शिष्टाचार के नाम पर असल में जब पाबंदियां 'लड़की होने के कारण लगती है ' तब मन का आहत होना लाजिमी है. यह बिना गुनाह किये दोषी ठहराने सरीखा है और एक सीमा से ज्यादा रोक-टोक से लड़कियों के मन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
क्या समय नहीं आया है कि औरतों की हँसी पर लगा पहरा हटाया जाए एवं हर चेहरे पर एक जैसी और खिलखिलाती हँसी को खुशहाल भारत का प्रतीक बनाया जाये?
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